Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 144
________________ कहा जा सकता है और न उभय रूप ही कहा जा सकता है, 2. हेमर्थिनस्तु माध्यस्थं तस्माद्वस्तु भयात्मकम्। क्योंकि दोनों में वैधर्म्य है। यथा नोत्पाद स्थिति भंगानामभावे स्यान्मतित्रयम्।। नासन्न सन्नसदसत् सदसतोवैधात। 3.न नाशेन बिना शोको नोत्पादेन बिना सुखम्। स्थित्या बिना न माध्यास्थ्यं तेन सामान्य नित्यता।। न्यायसूत्र 4/1/48 (मीमांसा श्लोकवार्तिक, 21-23) भाष्यकार वात्स्यायन लिखते हैं यच्च केषांचिदभेदं कुतश्चिद् भेदं करोति तत्सामान्य विशेषो जातिरिति। उत्पत्ति, विनाश और स्थिति के रूप में मीमांसा दर्शन में जो वर्णन है वही जैन दर्शन में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप यहां पर सामान्य विशेषात्मक मानकर अनेकांतवाद त्रिपदी की स्थापना है। भट्ट कुमारिल के द्वारा पदार्थ को की पुष्टि की गई है। क्योंकि अनेकांतवाद व्यष्टि में समष्टि उत्पत्ति, विनाश और स्थितियुक्त मानना, अवयवी और और समष्टि में व्यष्टि का अंतर्भाव मानता है। व्यक्ति के अवयव में भेदाभेद मानना, सामान्य और विशेष को सापेक्ष बिना जाति की और जाति के बिना व्यक्ति की कोई मानना आदि तथ्य इसी बात को परिपुष्ट करते हैं कि प्रभुसत्ता नहीं है। उनमें कथंचित् भेद और अभेद है। विशेष दार्शनिक चिंतन की पृष्ठभूमि में कहीं-न-कहीं अनेकांत के में सामान्य और सामान्य में विशेष अपेक्षा भेद से निहित तत्त्व उपस्थित रहे हैं। रहते हैं। यही तो अनेकांतवाद है। गीता में अनेकांतवाद वैशेषिक दर्शन में अनेकांत गीता के ब्रह्म विषयक निर्वचन को पढ़ते ही वैशेषिक दर्शन में सामान्य और विशेष नामक दो अनेकांतवाद की स्मृति हो जाती है। ब्रह्म न सत् है और न स्वतंत्र पदार्थ माने गए हैं। पृथिवीत्व आदि सामान्य विशेष असत् 'अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते' (गीता 1/ स्वीकार करते हैं। एक ही पृथिवी स्व-व्यक्तियों में अनुगत 1/12) वह सर्वंद्रिय व्यापारों से व्यावृत है और सर्वेद्रिय होने से सामान्यात्मक होकर भी जलादि से व्यावृत्ति कराने गुणों से वर्जित है। वह ब्रह्म भी है और निकटस्थ भी है। के कारण विशेष कहा जाता है। उनके यहां 'सामान्य ही 'सर्वेद्रिय गुणाभासं विवर्जितम्' (गीता 13/14-15) विशेष है' इस प्रकार पृथिवीत्व आदि को सामान्यविशेष इस प्रकार गीता में भी अनेकांत का पक्ष उजागर होता है। माना गया है। अतः उनके यहां भी एक आत्मा के पाश्चात्य दर्शन में अनेकांतवाद उभयात्मकथन-विशेष प्राप्त नहीं होते। जर्मन तत्त्ववेत्ता हेगल की मान्यता है कि विरुद्ध वस्तु सत्-असत् रूप है, इस तथ्य को भी कणाद धर्मात्मकता ही संसार का मूल है। हमें किसी वस्तु का वर्णन महर्षि ने अन्योन्यभाव के संदर्भ में स्वीकृत किया। वे लिखते करते हए उसकी वास्तविकता का तो वर्णन करना ही चाहिए, हैं सच्चासत्। यच्चान्यदसदतस्तदसत। व्याख्या में परंतु उसके साथ उन विरुद्ध धर्मों का समन्वय किस प्रकार उपस्कारकर्ता ने जैन दर्शन के समतुल्य ही कहा है- हो सकता है, यह भी बताना चाहिए। (Ibid, P. 467) यत्र सदैव घटादि असदितित्यवद्धियते तत्र ब्रैडले का विश्वास है कि प्रत्येक वस्तु दूसरी वस्तु की तादात्म्याभावः प्रतीयेत। अर्थात् वस्तु स्व-स्वरूप की तुलना में आवश्यक भी है और तुच्छ भी है। हर विचार में अपेक्षा से अस्ति रूप है और पर-स्वरूप की अपेक्षा से सत्य है, चाहे वह कितना ही झूठ हो, हर सत्ता में अस्ति रूप है और पर- स्वरूप की अपेक्षा नास्ति रूप है। वास्तविकता है, चाहे वह कितनी ही तुच्छ हो।। वस्तु में स्व की सत्ता की स्वीकृति और पर की सत्ता का (Appearance and Reality, P. 482) अभाव मानना यही तो अनेकांत है जो कि वैशेषिकों को इसी प्रकार और भी अनेक दार्शनिक हुए हैं, जिन्होंने भी स्वीकृत है, मान्य है। पदार्थ में विरुद्ध धर्मात्मकता को स्वीकार किया है, एक वस्तु मीमांसा दर्शन में अनेकांतवाद के विभिन्न रूपों को सापेक्ष माना है और किसी सत्त्व को निरपेक्ष नहीं माना। जाहिर है, भारतीय और पश्चिमी दर्शनों भट्ट कुमारिल लिखते हैं में अनेकांतवाद का मूल रूप स्वीकृत होने पर भी अनेकांत 1. वर्तमानक भंगे च रूचक क्रियते यद्। को स्वतंत्र दार्शनिक सिद्धांत का उच्चासन देने का गौरव तदापर्वार्थिन शोकः प्रीतिश्चाभ्युत्तरार्थिनः।। केवल जैन दर्शन को ही है। म मार्च-मई, 2002 स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती अनेकांत विशेष • 143 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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