Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 136
________________ धर्मों का समूह है। वस्तु जो भी है, वह संबंधों की एक है। जब वह पृथ्वी पर उतरकर यह अध्ययन करता है, तो वह अमराई है। भाषा केवल उस वस्तु के एक आयाम, गुण या स्वयं आवेश के साथ पृथ्वी पर घूम रहा है, अतः उस आवेश संदर्भ को ही एक समय में व्यक्त कर सकती है। भाषा की के आस-पास कोई चुंबकीय क्षेत्र नहीं पाता। अतः विज्ञान के यह लाचारी है कि वह एक साथ विरुद्ध संदर्भो को सभी निष्कर्ष, सापेक्ष होकर ही समीचीन हो पाते हैं। अभिव्यक्त नहीं कर सकती। ____ 'रिलेटिविटी' किसी वस्तु में स्थित परस्पर विरोधी अध्यात्मवादी डी.टी. सुजकी का कहना है कि भाषा स्थितियों को जानने के लिए बहुत जरूरी है। जैसे—क्रोध हमारी स्वानुभूति को संप्रेषित करने में असमर्थ है। स्वानुभव बुरा है। लेकिन कब? जब यह अपनी बुराई पर न करके भाषा की पकड़ से परे है। विज्ञान में भी ऐसा होता है। जब- बाहरी वस्तुओं या व्यक्तियों पर करते हैं। क्रोध यदि हम जब शब्द असमर्थ हुआ है, उसने गणितीय प्रतीकों की अपने अज्ञान के विनाश के लिए करें तो वह क्रोध सहायता ली है। कल्याणकारी भी बन सकता है। पेड़ की जड़ विरोधी दिशा स्याद्वाद अनेकांतात्मक वस्तु के स्वरूप को बताने में, में जाकर ही उसे आकाश में ऊपर उठाने में मदद करती है। " दो विरोधी तलों के कारण ही समतल का अस्तित्व है। हाथ भाषा की एक व्यवस्था है। वस्तु को, उसकी अस्मिता को की चार अंगुलियां एवं अंगूठे की विरोधी दिशाएं-दशाएं, जानने के लिए चार संदर्भो का ध्यान रखना होगा द्रव्य, हाथ में शक्ति लाती हैं। क्षेत्र, काल और भाव (देश)। अनेकांत का अर्थ है-जीवन के सभी पहलुओं की भगवान महावीर का 'अनेकांत-दर्शन' एकांगिक एक साथ स्वीकृति। अनुभव के अनंत कोण हैं। प्रत्येक कोण दृष्टियों का निराकरण करने, विविध और परस्पर विरोधी पर खड़ा हुआ आदमी सही है। लेकिन भूल वहीं हो जाती है, प्रतीत होने वाली मान्यताओं का समन्वय करने, सत्य का जब वह अपने कोण को ही सर्वग्राही बनाना चाहता है। शोध करने और चिंतन के विविध पक्षों को मणिमाला के समान एक सूत्र में निबद्ध करने के लिए है। वस्तुतः हमारा अहंकार हमें तोड़ता है। अहंकार समस्याएं पैदा करता है। अनेकांत सह-अस्तित्व की भौतिकवेत्ता अल्बर्ट आइन्स्टीन (1905-1919) के वकालत कर समस्याओं का निरसन करके विश्वशांति 'स्पेशल थ्योरी आफ रिलेटिविटी' तथा जैन दर्शन के स्थापना में मुख्य भूमिका निभाता है। सापेक्षता-सिद्धांत के अनेकांतवाद में बहुत समानता है। पहले पदार्थ (matter) और ऊर्जा (energy) दो विभिन्न आइन्स्टीन की घोषणा है-'One thing may be द्रव्य (antities) माने जाते रहे। साथ ही यह धारणा थी कि true but may not be real true. We can know only न तो पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है और न ही the relative truth. The absolute truth is known ऊर्जा को पदार्थ में। लेकिन स्पेशल थ्योरी आफ रिलेटिविटी only by the universal observer'-हम केवल सापेक्ष के द्रव्यमान--ऊर्जा सूत्र E=mc2 के अनुसार यह परस्पर सत्य को ही जान सकते हैं। निरपेक्ष सत्य को सर्वज्ञ ही जान रूपांतरण संभव हो गया। विज्ञान कहता है कि एक सकता है। किलोग्राम उपयुक्त पदार्थ से 9x1016 जूल ऊर्जा प्राप्त की आइन्स्टीन सत्य को दो संदर्भो में लेता है—एक जा सकती है। जैन दर्शन पहले से ही पदार्थ और सापेक्ष सत्य और दूसरा नित्य सत्य। अनेकांतवाद 'सापेक्ष ऊर्जा—दोनों को पुद्गल की पर्याय मानता है। सत्य' पर आधारित है। महावीर-एक संभावनाओं के पुंज-पुरुष रेखांकित आइन्स्टीन इसे एक सटीक उदाहरण द्वारा प्रस्तुत किए जा सकते हैं। महावीर का दर्शन संभावनाओं का करते हैं। अचल विद्युत (Static charge) के आसपास कोई प्रतिफल है। संभावनाओं को ही सारे शास्त्र और ज्ञान चुंबकीय क्षेत्र नहीं होता जबकि चल विद्युत के आस-पास संबोधित हैं। जो निरपेक्ष और अंतिम है—वह महावीर हो चुंबकीय क्षेत्र होता है। गया है। किसी सुदूर ग्रह पर एक वैज्ञानिक बैठा है और पृथ्वी वीतराग-मूर्तियां क्या हैं? पर रखे आवेश पर प्रयोग कर रहा है। पृथ्वी गतिमान है, अतः वहां भौतिक रूप गौण बन गया। इन मूर्तियों में वह देखता है कि आवेश के आस-पास विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र अनेकांत की धारणा का कला में वितरण हो गया। रूपाकार स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष. 135 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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