Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 135
________________ अनेकांत की वैज्ञानिकता निहालचंद जैन BHISE SHREER अनेकांत का अर्थ है-जीवन के सभी पहलुओं की एक साथ स्वीकृति। अनुभव के अनंत कोण हैं। प्रत्येक कोण पर खड़ा हुआ आदमी सही है। लेकिन भूल वहीं हो जाती है, जब वह अपने कोण को। ही सर्वग्राही बनाना चाहता है। ___ाहावीर जैसा नैसर्गिक और वीतरागी पुरुष -भगवान महावीर ने 'स्याद्वाद और अनेकांत' के खोज पाना मुश्किल है। उनकी दिव्य-देशना आलोक में सह-अस्तित्व को रोशनी दी, प्राण दिए। सहमानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना और प्रतिष्ठा के लिए हुई। अस्तित्व की अनुकंपा से अनेकांत का सिद्धांत आचरण में, -समता, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व. संयम और जीवन में रूपायित होता है। स्वतंत्रता के पंचशील सूत्रों ने उन्हें सार्वदशिक और –अनेकांत के आंगन में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम' सार्वकालिक बना दिया। का आचार्य उमास्वाति का अमर-सूत्र, पुष्प बनकर फला–महावीर की खोज इंद्रियजनित नहीं. अतींदिय- फूला। प्रत्येक प्राणी सापेक्षता और सह-अस्तित्व से जड़ा मूलक थी। इंद्रियों का संबंध पदार्थों से है। पदार्थ विज्ञान है। एक का उपहार दूसरे को उपकृत कर रहा है। इसके की खोज का मूल है, जबकि अतींद्रिय की खोज-वीतराग बिना न जीवन संभव है और न ही जीवन का विकास। विज्ञान पर टिकी है। -प्रकृति में कुछ भी अकारण नहीं है, भले ही हमारा -वीतराग विज्ञान के हिमालय से समता और । अज्ञान उसमें कारण न ढूंढ़ पाए। मनुष्य मनुष्य से ही नहीं अज्ञान उसम क सहिष्णुता-मूलक सह-अस्तित्व की पावन गंगा अवतरित पता वृक्षों, पेड़-पौधों से भी जुड़ा है। वृक्ष हमारी निश्वासित वायु होती है। उस गंगा को बुलाने के लिए आत्म-पुरुषार्थ का से भोजन बना रहा और बदले में हमें प्राण-वायु दे रहा है। भगीरथ चाहिए। आज विवाद वस्तुओं के कारण नहीं है। विवाद -जीवन-मृत्यु में, जय-पराजय में, सुख-दुख में, है-विचारों के कारण। देखने वाले की दृष्टि के कारण प्रशंसा और निंदा में समताशील बने रहना वीतरागी का विवाद है। हम इसी आग्रह में हैं कि हमें जो दिख रहा है वह करिश्मा हो सकता है। संसारी सुवर्ण और मृत्तिका को संपूर्ण है, वही सत्य है। हमें जो दिख रहा है वह सत्य का समभाव से नहीं देख पाता। एक भाग हो सकता है, संपूर्ण सत्य नहीं। समुद्र में तैरता हिमखंड (आइसवर्ग) समुद्र सतह पर जितना दिखाई दे रहा -सह-अस्तित्व के कार्य में अनाग्रह के बीज छिपे है क्या उतना ही है? नहीं दश्य का लगना उसके भीतर होते हैं। मौजूद है, पानी के अंदर। दृश्य के आधार पर यदि कोई -वस्तुतः संघर्ष का जनक हमारी आग्रहवृत्ति है। जहाज उससे टक्कर लेने लगे तो उसे भारी नुकसान उठाना आग्रहवृत्ति सत्-असत् और हेय-उपादेय को नहीं, स्वार्थ को पड़ सकता है। देखती है। आग्रहवृत्ति जहां है, वहां अविवेक है और अविवेक अनेकांत वस्तु के बहुआयामी गुण-धर्मों में एक संघर्ष और युद्ध रचता है। 'महाभारत' अविवेक का संग्राम समन्वय और सह-अस्तित्व की रचनात्मक भूमिका प्रदान था, जो आग्रह की भूमि पर लड़ा गया था। करता है। कोई वस्तु निरपेक्ष नहीं है। वह अनेक विरोधी स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 134. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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