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विज्ञान के मंतव्यों के सामंजस्य और समन्वय से द्वंद्वात्मक कि दो समानांतर रेखाएं अनंत पर जाकर मिल जाती हैं। दर्शन को अभिनव रूप प्राप्त हो सके। अभी तक विचार के क्षेत्र में अनंत का वह बिंदु कहां है, इसकी खोज पाश्चात्य दार्शनिक सामंजस्य और समन्वय की दृष्टि से की ओर अभी तक ध्यान नहीं गया है। उल्लेखनीय कार्य इसलिए नहीं कर पाए हैं कि
ये दो द्वंद्वात्मक ध्रुवांत हैं-जैन अनेकांत दर्शन से सापेक्षतावाद, दिक्काल-समुच्चय संभाव्य निश्चितता के ,
___ पुष्ट अहिंसा और भौतिकतावादी विज्ञान के दर्शन से पुष्ट सिद्धांत ने उनकी संरचना-संबंधी मान्यताओं के लिए
हिंसा। अनेकांत की अहिंसा और विज्ञान की हिंसा के वैसी चुनौती प्रस्तुत कर दी है जैसी अद्वैत दर्शन ने वर्ण
सामंजस्य और समन्वय के बिना जीवमात्र का अस्तित्व संरचना की मान्यताओं के लिए। सत् के स्वरूप के
आज शंका के घेरे में है। द्वंद्वात्मक वैज्ञानिक भौतिकतावादी अनुरूप यदि सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक आदि की
दर्शन के आधार पर मार्क्स और एंगेल्स ने वर्ग-संघर्ष की संरचना में अपेक्षित परिवर्तन सत्तासीन वर्ग को स्वीकार्य । न हो तो समाज में असंतोष ही नहीं बढ़ेगा, बल्कि उसके
अनिवार्यता और अपरिहार्यता का समर्थन किया और इस विघटन की प्रक्रिया भी तेज हो जाएगी, जैसा कि आज
दर्शन का सहारा लिए बिना लोकतंत्र भी हिंसा की विश्वव्यापी पैमाने पर दिखाई पड़ रहा है। इस भावना को
अनिवार्यता और अपरिहार्यता को मानकर चलता है। जैन ध्यान में रखकर जयशंकर प्रसाद (कामायनी, श्रद्धा सर्ग)
स्याद्वाद का अनेकांत दर्शन जिस द्वंद्वात्मक तर्क से अहिंसा ने लिखा है
को मोक्ष के लिए अनिवार्य मानकर सम्यक् दर्शन, सम्यक्
ज्ञान और सम्यक् चरित्र की अवधारणा को स्वीकार करता 'शक्ति के विद्युत्कण, जो व्यस्त
है, उस पर सामाजिक संरचना के पुनर्गठन की दृष्टि से विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय;
हिंसा की सापेक्षता में पुनर्विचार करना होगा। कारण समन्वय उसका करे समस्त विजयिनी मानवता हो जाय।'
संभवतः यह है कि विज्ञान का दर्शन मुख्यतया भौतिकी का
आश्रय लेकर चलता है और जीव और जीवन पर उसी का ध्यातव्य यह भी है कि मानवता की विजयिनी होने पर
प्रक्षेपण कर देता है, लेकिन अनेकांत दर्शन मुख्यतया
कर देता है लेकिन अमांत , की भावना से प्रेरित हुए बिना अनेकांत दर्शन के अभिनव जीवन-सापेक्ष है। संभवतः इसीलिए प्रथम का झुकाव हिंसा विकास की संभावना नहीं है। विज्ञान ने ज्ञान के विद्युत्कणों की ओर है तो द्वितीय का अहिंसा की ओर। को बिखेर दिया है क्योंकि वह बहिर्मुखी है और उसकी
चार्ल्स डार्विन की 'ओरिजिन आफ पद्धति विश्लेषणात्मक है; दर्शन अंतर्मुखी है और उसकी
(1859) के आधार पर संघर्ष और हिंसा को जीवन के पद्धति संश्लेषणात्मक। चूंकि अनेकांत दर्शन यथार्थमूलक
लिए अनिवार्य मानकर उनका समर्थन किया जाता रहा है रहा है और विज्ञान की दृष्टि भी यथार्थमूलक है, इसलिए
लेकिन अपने परिपक्व विचारों को बारह वर्षों के बाद अनेकांत दर्शन की न्याय-पद्धति नए सामंजस्य और
उन्होंने जिस 'डिसेंट आफ मैन' (1871) में अभिव्यक्त समन्वय की वर्तमान रिक्तता की पूर्ति कर सकती है।
किया उसका उल्लेख तक नहीं किया जाता है, क्योंकि विज्ञान भौतिक जगत की अनंत संभावनाओं के इसमें डार्विन ने मानव-समाज के विकास के लिए नियमों की खोज है, अनेकांत दर्शन वैचारिक जगत की पारस्परिक सहयोग, दया एवं अन्य उच्चतर मानव-मूल्यों अनंत प्रतीतियों की संभावनाओं में सामंजस्य और समन्वय को अनिवार्य बताते हुए कहा है कि जो व्यक्ति या राष्ट्र इन के सूत्र की खोज। दोनों में से किसी भी जगत की खोज गणों को अपनाता है वह दीर्घजीवी होता है। इन्हें अपनाने अंतिम नहीं होती, हो ही नहीं सकती क्योंकि जीवन-प्रवाह से मनुष्य का सभ्य एवं आध्यात्मिक जीव के रूप में अनादि और अनंत है। इसे तो परम व्योम का परम भी विकास होता है। शायद जानता है या नहीं, इसे कौन जानता है? (ऋग्वेद,
अनेकांत दर्शन के अभिनव विकास के सामंजस्य और 10.129.7)
समन्वय के नए धरातल की ओर भी इस भावना से संकेत आज सामंजस्य और समन्वय की अत्यंत बृहत्तर भर कर दिया गया है कि इसमें निहित रचनात्मक क्षमता के धरातल पर आवश्यकता है, इसकी गुरुता दो ध्रुवांतों के कारण इसकी असीम संभावनाओं के फलित होने का समय उल्लेख मात्र से स्पष्ट हो जाएगी। आइन्स्टीन का कथन था आ गया है।
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2011-1212111111111111111111111111111111
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
मार्च-मई, 2002
अनेकांत विशेष.43
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