Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 149
________________ केवल यही नहीं कि अपराध करने वाला वाक्पटु है, परंतु इसको रोकना अत्यंत कठिन है। वह व्यक्ति यह परंतु उसके साथ एक शक्ति काम करती है, जो अपनी सोचता है कि जब मैं अत्यंत निर्दोष हूं, तब दंडित नहीं है, अपने आश्रय की है, जिससे कि वह उस क्यों होऊं? क्या यह मेरे स्वतंत्र चैतन्य का अनादर अपराध से छूट जाता है, और दूसरा व्यक्ति अपराध नहीं है? क्या मैं इस दंड को स्वीकार कर अपनी नहीं करने पर भी दंडित होता है, क्योंकि उसका क्लीवता नहीं दिखा रहा हूं? क्या मैं प्रतिकार करने में सहयोगी इतना प्रबल और शक्तिशाली नहीं है, तो असमर्थ हूं? क्या नेता ने मुझे अपराधी समझकर दंड इसका यह अर्थ हुआ कि अपराध को पोषण सहयोग से दिया है या मुझको अनपराधी समझते हुए भी किसी मिलता है। यदि सहयोग न हो तो अपराध अपनी मौत दूसरे व्यक्ति के अपराध को मुझ पर मढ़कर, उसको मर जाता है। वह पनप ही नहीं सकता। बचाने के लिए, मुझे दंडित किया है? क्या मेरे प्रति एक प्रश्न होता है कि अपराध-रहित व्यक्ति कोई ऐसा वातावरण बनाकर मुझे अपमानित करने का क दंडित क्यों होता है ? इसके अनेक कारण हैं। उनमें एक तो यह उपक्रम नहीं है? ऐसे ही अनेक प्रश्न उसके मन को कचोटते हैं और उसमें अव्यक्त विद्रोह की है-अपने-आप को खोकर भी दूसरे को प्रसन्न रखने - आग भभक उठती है, किंतु असहाय होने के कारण की मनोवृत्ति और दूसरा है बुराई के प्रतिकार हेतु साहस वह उस आग में तिल-तिल कर जलता है और तब का अभाव। ये दोनों कारण उसके सहजात नहीं हैं, तक जलता रहता है, जब तक कि उसे समाधान नहीं परिस्थिति से उत्पन्न होते हैं। वह सोचता है व्यवहार मिल जाता। का पालन जीवन का अनिवार्य अंग है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन व्यावहारिक भूमिकाओं पर चलता नन्द-उपनन्द है। व्यवहार की अपेक्षा कर वह मानसिक शांति बनाए भगवान बंभणगाम नगर में आए। गोशाला साथ नहीं रख सकता और जहां अशांति होती है, वहां उसके में था। वहां नन्द तथा उपनन्द दो भाई रहते थे। उस पदच्युत होने की आशंका बनी ही रहती है। वह ग्राम के दो पाडे (भाग) थे। एक भाग नन्द के अधीन करता है। उसमे अनेक व्यवहार था, दूसरा उपनन्द के। भगवान महावीर नन्द पाडे में उसकी विचारधारा से टकराते हैं, परंतु वह उनसे नन्त के परतु वह उनस नन्द के घर गए। नन्द ने भगवान को आहार आदि से अविचलित होते हुए, व्यवहार से समझौता करता प्रतिलाभित किया। गोशाला उपनन्द के पाडे मे उपनन्द है-यह उसकी सैद्धांतिक पराजय है, किंतु व्यावहारिक के घर गया और भिक्षा की याचना की। भिक्षा तैयार विजय है। इस विजय के आलोक में वह इतस्ततः मित्र नहीं थी। तब उपनन्द ने बासी चावल देने चाहे। बनाते हुए एक सुदर व्यावहारिक जीवन की पृष्ठभूमि गोशाला ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया। उपनन्द को तैयार करता है और उसी पर बढ़ता चला जाता है। यह यह उचित नहीं लगा। उसने अपनी दासी से पद्धति एक में नहीं, सबमें मात्रा-भेद से पाई जाती है। कहा—'जा. त इन चावलों को उसी भिक्षक के ऊपर जब इसमें मात्रा का अतिरेक होता है, तब हम उसे डाल दे।' दासी ने वैसा ही किया। इस व्यवहार से चापलस कह देते हैं और जब उचित मात्रा का निर्वाह गोशाला कपित हो गया। आंखें लाल करता हआ वह नहीं होता, तब हम उसे उइंड कह देते हैं। मात्रा का बोला-'यदि मेरे धर्माचार्य का कोई तेज या तपस्या संतुलन व्यावहारिक जीवन का मर्यादा-सूत्र है, और का बल है तो इसका घर जलकर भस्म हो जाए।' पास इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। में ही एक वाणव्यंतर देव का आयतन था। देवता ने यह परंतु जब व्यक्ति दंडित होता है, तब उनके जाना। उसने सोचा, भगवान का तेज अन्यथा न हो। विचार विद्रोह करते हैं और वह अपराध या अपराधी उपनन्द का घर जल गया। घर वालों ने गोशाला को को अनावृत करने के लिए उतावला हो उठता है। इस बहुत बुरा-भला कहा, वह भयभीत होता हुआ भगवान आवेश का कभी-कभी अत्यंत दुखद अवसान होता है, के पास शीघ्र ही आ गया। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 148 . अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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