Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 124
________________ था, जैसे वह कह रहा हो, 'मुझे मारो!' जड़-चेतन से तटस्थ तुमसे विवाह नहीं करूंगी। पहले इसको मार डालो...।' होकर मैंने उसके किमोनो में तलवार भोंक दी। मेरी नजर उसने कई बार ये शब्द दोहराए। जैसे मुझे मरवाने की जिद बराबर शून्य पर थी। नहीं तो बेहोशी पुनः मुझ पर हमला उसके दिमाग पर हावी हुई हो। याद करके टूटता हूं। बोलती। उसके प्राण निकल रहे थे। सूर्य की आखिरी किरण भगवान के लिए आप ही कहिए, आज तक कोई पत्नी अपने में उसका पीला चेहरा चमक उठा। सिसकियां दबाकर मैंने पति के लिए ऐसे शब्द बोली होगी? क्या कभी किसी औरत रस्सी इकट्ठी कर ली। इसके बाद मैं कहां-कहां पहुंची, क्या- ने...! ऐसा इस दुनिया में कभी हुआ होगा...! (घृणा से क्या किया--यह सुनाने की हिम्मत अब बाकी नहीं बची है। चीखता है) उसके शब्द सुनकर डाकू का चेहरा फक पड़ एक बात जरूर है कि मैंने मन से मौत को नहीं बुलाया। गया। वह उसके साथ चिपकती जा रही थी और मुझे मारने मुझमें वह साहस नहीं था। नहीं तो वह तलवार कई बार मैंने के लिए बराबर उकसा रही थी। गले पर फेरी थी। एक जगह पहाड़ की तलहटी से कूदने की उसका उत्तर दिए बिना डाकू ने दुबारा उसको जमीन कोशिश की थी। आत्महत्या के कई असफल प्रयास किए। पर गिराया। घृणा से चिल्लाकर 'छीः छीः' कहा। कुछ देर आज निर्लज्ज होकर आप लोगों में जिंदा खड़ी हूं। तक चुप्पी छाई रही। इसके बाद डाकू उठकर मेरे पास (अकेलेपन की फीकी मुस्कराहट) आकर बोला, 'तुम इसके साथ कैसा व्यवहार करोगे? जिंदगी में मैं हर प्रकार से बेकार हूं। मेरी प्रार्थना है बोलो? तुम तो सिर्फ सिर हिला रहे हो। क्या इसको मार कि मेरे साथ दया का व्यवहार किया जाए। मुझे छोड़ा जाए। डालोगे?' मैंने जान-बूझकर उसको नहीं मारा। मैं विवश थी। डाकू ने बेचारा डाकू! उसके ये वचन ही उसका अपराध मुझे आक्रामक बनाया था। मैं क्या कर सकती थी.... आधा कर गए। मैं हिचकिचा रहा था। तभी वह झाड़ी से (सिसकियां) निकल भागी। उसको पकड़ने के लिए डाकू पीछे दौड़ा, पर किसी माध्यम द्वारा मृतक के मुख से वह पकड़ न पाया। वापस आकर उसने मेरे हथियार उठा डाकू ने मेरी पत्नी को डराया, धमकाया और फिर लिए। तलवार से मेरी रस्सी काटी। मैं आजाद हो गया। चिकनी-चपडी बातें करने लगा। देवदार के साथ बंधा मैं जाते हुए वह फुसफुसा रहा था, 'मेरे भाग्य में उसे अगले क्या करता? मुंह में पत्ते ठंसे थे। बोल तक न पाया। इसके जन्म में पाना लिखा होगा।' सब शांत हुआ। नहीं, कहीं से बावजूद संकेतों से मैंने उसको डाक के बहकावे में न आने रोने की आवाज आई। कान लगाकर मैंने सुना, वह खुद मेरी का आदेश दिया, लेकिन वह निर्लज्ज टांगें पसारे डाक की आवाज थी। (लंबी खामोशी) थके शरीर को मैंने दीवार के बातों में रस ले रही थी। वह कभी एक विषय पर बात साथ खड़ा किया। मेरे सामने वह तलवार दिपदिपा रही थी. करता. कभी दूसरे पर। यह देखकर मझे आग लग गई। जिसे वह छोड़कर गई थी। मैंने धीरे से तलवार उठाई और वह मेरी पत्नी से बोला, 'तुम्हारी पवित्रता पर धब्बा अपनी छाती में भोंकी। मुंह से खून छलक आया। पीड़ा नहीं लग चुका है। पति के साथ तम पहले जैसी खश नहीं हुई। छाती ठडी पड़ने लगी। रहोगी। बेहतर है कि तम मेरी पत्नी बन जाओ। देखो. प्रेम चारों तरफ शांति छा गई। आह! कितनी सम्मोहक के अतिरेक ने मुझे आक्रामक बनाया है।' डाकू के शब्द शांति थी। पहाड़ के ऊपर वेदियां खाली पड़ी थीं। वहां एक सुनकर उस पर मूच्र्छा-सी छा गई। वह अद्भुत रूप से भी पक्षी न था। प्रकाश कम हो रहा था। बांस और देवदार सुंदर लगने लगी। मैंने जीवन-भर उसका ऐसा सुंदर रूप अंधेरे में विलीन हो चुके थे। मैं परम मौन को समर्पित हो कभी नहीं देखा था। बंधा हुआ मैं सुन्न पड़ता गया। डाकू रहा था। कुछ देर बाद मुझे यूं लगा, जैसे कोई रेंगते हुए की बातों के उत्तर में वह क्या बोली, ठीक से याद नहीं। मेरे पास सरक आया। मैंने पूरी कोशिश की, उसे देख लूं, हलका-सा याद है वह कुछ यूं बोली थी, 'मुझे साथ ले लेकिन ऐसे भयानक अंधकार में कुछ दिखाई न पड़ा। जाओ।' इसके अपराधों का अंत अभी नहीं हुआ है। ऐसा किसी ने मेरी छाती में से तलवार निकाली। उन अदृश्य होता, तो मैं इस अंधेरे में चिथड़ा-चिथड़ा न होता। हाथों को मैं न देख पाया। एक बार फिर मुझे खून की इसके बाद वह डाकू के साथ गलबहियां करती हुई उलटी हुई, फिर सदा के लिए मैं अंधकार के साथ एक हो मेरी तरफ इशारा करके बोली, 'मारो इसको। नहीं तो मैं गया। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 | अनेकांत विशेष.123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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