Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 147
________________ जैन दर्शन का वज्रघोष है कि वस्तु में अनेक धर्म हैं। की जानकारी प्राप्त कर सके-अतः सत्य के लिए कथित इन धर्मों में से किसी एक धर्म का निषेध नहीं किया जा अन्य मार्ग भी उतने ही श्रेष्ठ हैं, जितना हमारा मार्ग। इस सकता। जो एक धर्म का निषेध कर दूसरे धर्म का समर्थन सत्य को स्वीकार कर लेने पर हमारे ज्ञान की अभिवृद्धि करते हैं वे एकांतवाद से ग्रसित हो जाते हैं। व्यक्ति जब तक होती रहेगी और चिंतन के द्वार अवरुद्ध नहीं होंगे। एकांतवाद के आग्रह का परित्याग नहीं करता तब तक तत्त्व उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं का सही स्वरूप समझ नहीं सकता। किसी वस्तु के एक धर्म कि अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद वस्तुतः सुरभित फूलों का को सर्वथा सत्य मानना और दूसरे धर्म को सर्वथा असत्य बगीचा है जिसमें नाना रंग और नाना प्रकार की सौरभ में कहना, वस्तु की पूर्णता को खंडित करना है। परस्पर महकते हुए अनेक प्रकार के फूल खिले रहते हैं। प्रत्येक फूल विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म अवश्य ही एक-दूसरे के अपनी मोहक सौरभ महकाता है, किंतु दूसरे की सौरभ व विरोधी हैं, किंतु संपूर्ण रूप से विरोधी नहीं हैं। सुंदरता पर किसी प्रकार का आघात नहीं करता। इसी मल्लिषेणसूरि ने स्याद्वाद मंजरी। में अनेकांतवाद के प्रकार अनेकांतवाद के उद्यान में विविधता में एकता और चार भेद बताए हैं एकता में विविधता, नित्यत्व में अनित्यत्व व अनित्यत्व में स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूपं वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव। नित्यत्व आदि प्रकार के विचार-पुष्पों के दर्शन किए जा विपश्चितां नाथ निपीततत्त्वसुधोद्गतोद्गार परम्परेयम्।। सकते हैं। इस विराट सिद्धांत के द्वारा विश्व के समस्त अर्थात प्रत्येक वस्त को (1) कथंचित अनित्य, दर्शनों व धर्मों का समन्वय सहजता से किया जा सकता है. कथंचित् नित्य (2) कथंचित सामान्य, कथंचित् विशेष लेकिन खेद का विषय यह है कि हमने इसे सिद्धांत रूप में (3) कथंचित् वाच्य, कथंचित् अवाच्य (4) कथंचित् सत् तो स्वीकारा, परंतु जीवन से जोड़ नहीं पाए। और कथंचित् असत् प्रतिपादित किया है। आचार्य तुलसी ने सच ही कहा कि 'हमारी सबसे अनेकांत में सम्यक्त्व का प्रकाश जगमगा रहा है। बड़ी गलती यही रही है कि तत्त्व की व्याख्या में हमने अनेकांतवाद की यह विशेषता है कि वह वस्तु के अन्य अनेकांत को जोड़ा, पर जीवन की व्याख्या में उसे जोड़ना विद्यमान धर्मों की उपेक्षा करके किसी एक ही धर्म को भूल गए, जबकि महावीर ने जीवन के हर कोण के साथ ग्रहण नहीं करता। वह जिस वस्तु का निरूपण करता है अनेकांत को जोड़ने का प्रयत्न किया है।14 उसके विविध धर्मों का परिज्ञान कराता है। इस अपेक्षा से . ऐसा है और अन्य अपेक्षा से ऐसा भी है, वह 'ही' के 1. स्याद्वादमंजरी, पृ. 19 स्थान पर 'भी' का प्रयोग करता है। 'ही' और 'भी' में 2. सन्मति-तर्क, 3/68 बहुत अंतर है 'ही' में एकांतवाद का आग्रह है तो 'भी' में 3. मु.द्ध.अ.ग्र., पृ. 141 अनेकांतवाद है।12 4. ऋग्वेद, 164, 46 भगवान महावीर का यह अनेकांतवाद मुख्य रूप से 5. अनंत धर्मात्मकमेव तत्त्वम्। स्याद्वाद मंजरी, श्लोक 22 हमें तीन बातों की प्रेरणा देता है 6. अहिंसा की बोलती मीनारें, पृ. 111 1. कोई भी मत या सिद्धांत पूर्णतः सत्य या असत्य 7. श्रमण महावीर, पृ. 174 नहीं है, अर्थात् सिद्धांतों के प्रति दुराग्रह नहीं होना चाहिए। 8. वही, पृ. 177 9. वही, पृ. 178 2. विरोधियों द्वारा गृहीत और मान्य सत्य भी सत्य 10. जैन धर्म और दर्शन, पृ. 60 है इसलिए उस सत्य का अपने जीवन में उपयोग न करते 11. (क) द्रष्टव्य, पृ. 231 हुए भी उसके प्रति सम्मान का भाव रखना चाहिए। इस (ख) स्यादस्ति च नास्तीति च, नित्यमनित्यं त्वनेकमेकं च प्रकार से विरोधियों के सत्य में भी हमारे लिए सृजनशील तदतच्चेनिचतुष्टय युग्मैरिव गुम्फितं वस्तु।। संभावनाएं निहित मिलेगी, अन्यथा, विरोधियों के सत्य के द्रष्टव्य-श्री पु.मु.अ.ग्र., चतुर्थ भाग, पृ. 354 प्रति हमारा उपेक्षाभाव विध्वंसक भावों को जन्म देगा। 12. अहिंसा की बोलती मीनारें, गणेश मुनि, पृ. 109 3. मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण है और ऐसा कोई एक मार्ग 13. भगवान महावीर आधुनिक संदर्भ में, पृ. 129 नहीं है, जिस पर चलकर एक ही व्यक्ति सत्य के सभी पक्षों 14. साधना के शलाका पुरुष : गुरुदेव तुलसी, पृ. 1766 स्वर्ण जयंती वर्ष 146 • अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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