Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 25
________________ जहां तक स्याद्वाद का संबंध है, यह हमारे साधारण परमार्थ का भेद किया है और व्यवहार को 'मिथ्या' कहा भाषा-प्रयोग में पूर्वगृहीत बातों को केवल विस्तार से कहना है। उनकी दृष्टि पूर्णतः युक्तिसंगत है, यहां यह हमारा है। उदाहरणतः जब हम कहते हैं 'यह घट है' तब इसमें प्रतिपाद्य नहीं है, किंतु उनकी दृष्टि के विरुद्ध बिना कोई 'वह' की और 'था' और 'होगा' की व्यावृत्तियां पूर्वगृहीत युक्ति दिए लोकसाधारण बोध को परमार्थ बोध मानकर रहती हैं। 'यह घट है' इस वाक्य को निरपेक्ष रूप से कोई अपने को हाथी का ज्ञाता बताना और उन्हें सूंड और पैर भी नहीं लेता। यदि कोई लेता है तो इसका अर्थ है कि वह को हाथी मानने वाले कहना केवल उपहासास्पद बालिशता साधारण भाषा-ज्ञान से वंचित है। किंतु यह वस्तु विषयक ही प्रदर्शित करना है। दूसरे, यदि अकेवली मनुष्य परमार्थ लोकधारणा है। यदि कोई इस लोकधारणा को ही, जिसे तत्त्व को उसकी समग्रता में जान पाने में असमर्थ हैं तो महात्मा बुद्ध 'पृथग्जन की धारणा' कहते हैं, परमार्थ का आप अकेवली यह कैसे जानते हैं कि आपकी ज्ञान-विषय स्तर दे देता है और इस पर ही अपनी सारी विवेचन- सूंड किसी हाथी अवयवी की अंग है, कि परमार्थ तत्त्व शक्ति का अपव्यय करता है तो वह हमारी सहानुभूति का अनेकांत है, कि आपके प्रकार की सापेक्षता को केवली पात्र तो हो सकता है, आदर का पात्र नहीं। पीछे इंग्लैंड के निरपेक्ष रूप में जान सकता है? आप वैज्ञानिक 'साधारण भाषा या कहें लोक-भाषा परमार्थवादी' सापेक्षतावाद से अपने सापेक्षतावाद की अनुरूपता कहते (ऑर्डिनरी लेंग्वेज अनेलेइस्ट्स) दार्शनिकों ने, जिनमें हैं, किंतु आइन्स्टाइनीय सापेक्षता-सिद्धांत ज्ञान की 'सी.डी. ब्रॉड", और पी.एफ. स्ट्रॉसन के नाम निरपेक्षता को संभव ही नहीं मानता और न पारमाणविक उल्लेखनीय हैं, जैनों से भी अधिक सूक्ष्म किंतु ऊबाऊ अनिर्धार्यता का सिद्धांत केवली के लिए भी निर्धारण को विश्लेषण प्रस्तुत किया था। किंतु संभव मानता है। विज्ञान की बात दार्शनिक विचार को भौतिक छोड़ें, उसे गौरव देना और उससे वस्तुओं विषयक लोकधारणा को घट यदि पर्याय है तो वह सर्वथा अनुरूपता बताकर अपने को समर्पित कर देना और आत्मा अनित्य ही हो सकता है, वह नित्य गौरवान्वित करना दार्शनिक आदि संबंधी विचार को भी इसी कैसे होगा? इसी प्रकार, आकाश अधकचरेपन को ही प्रकट करता निदर्श पर करना प्रशंसनीय नहीं यदि द्रव्य है तो वह सर्वथा नित्य ही है। यहां प्रासंगिक बात यह है कि कहा जा सकता। किंतु बौद्ध जब हो सकता है, वह अनित्य कैसे यदि आप परमार्थ ज्ञान केवल सब-कुछ को क्षण-संतान कहते होगा? यदि आप कहते हैं कि नहीं, केवली के लिए ही संभव मानते हैं हैं, जब अवयवी की सत्ता कुछ भी केवल द्रव्य या केवल पर्याय तो अपनी अभिवृत्ति महात्मा बुद्ध अस्वीकार कर उसे केवल नहीं हो सकता, तो आपको 'घट के जैसी होनी चाहिए कि 'तत्त्व नित्यानित्य है ऐसा नहीं कह कर अवयव-संघात कहते हैं, या केवल संबोधि का विषय है, ऐसा कहना चाहिए कि वह वस्तु जो उपनिषद जब सब-कुछ को ब्रह्म परमाणु पक्ष में द्रव्य और घट पक्ष में इसलिए उसके संबंध में बोध के कहते हैं, तब ऐसा नहीं है कि पर्याय है वह नित्यानित्य है।' किंतु लौकिक स्तर पर रहते हुए विचार उन्हें लोक-भाषा का ज्ञान नहीं यह कोई कहने की बात ही नहीं है, करना व्यर्थ है, उस स्तर पर तो होता या वस्तु विषयक क्योंकि आप अस्तित्व मात्र को द्रव्य- केवल इतना समझना ही अपेक्षित लोकधारणा का पता नहीं होता। पर्यायात्मक ही मानते हैं और है कि व्यवहार-लोक किंतु वे इस जानकारी के बावजूद परिणामतः आपके लिए ऐसा कुछ हो अविद्यामूलक संस्कार प्रवाह मात्र अपने सिद्धांतों का भिन्न प्रकार ही नहीं सकता जो केवल द्रव्य या है। यदि परमार्थ को जानना है तो से प्रतिपादन करते हैं। इसका केवल पर्याय हो। व्यवहार की अविद्यामूलकता कारण यह है कि वे लोक जानकर अपना दीपक स्वयं धारणाओं को परमार्थ-विचार में बनो-अप्प दीपो भव। उसके युक्तिसंगत नहीं पाते। इसी प्रकार के विचार के क्रम में संबंध में दर्शन-चर्चा मत करो।' किंतु जैन इसके विपरीत महात्मा बुद्ध, महायानी बौद्धों और शंकर ने व्यवहार और कहते हैं कि उनका मत ही ऐकांतिक रूप से युक्त मत है। Home स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 24. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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