Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 139
________________ समस्याओं का समाधान : अनेकांठ । हेमलता बौलिया PRABHA । वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक अराजकता, उलझाव और टूटन के युग में यदि इस सिद्धांत का व्यापक समझ के साथ उपयोग हो तो पारस्परिक अविश्वास, वैमनस्य और आपाधापी के झंझावात की गति में अवोध आ सकता है। विद्वेष, अनाचार और कदाचार की आंधी रुक सकती है। परिवार में सास यदि यह समझ ले कि दूसरे के घर से आई बहू जो-कुछ कह रही है-वह उस घर के दृष्टिकोण, वहाँ के पारिवारिक वातावरण-जहां से वह आई है-उस दृष्टिकोण से सही हो सकता है। इसी प्रकार बह यह समझ ले कि सास जो-कुछ कह रही है, वह उसके अपने पति-परिवार के खट्टे-मीठे अनुभवों के आधार पर कह रही है। दोनों देष छोड़कर वस्तुनिष्ठ विचार करें, एक-दूसरे के विचार को सम्मान दें, तो प्रतिदिन के कलह टाले जा सकते हैं। कलह के अभाव में परस्पर प्रेम और विश्वास बना रहेगा तो परिवार एक रहेगा। AuN पाज का सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य किसी के अन्य सदस्यों के प्रति विश्वास में कमी और टकराहट से छिपा नहीं है। वर्तमान में समाज और उत्पन्न करता है। यथा-सास बहू के प्रति और बहू सास राजनीति की जो स्थिति है, उसे न तो स्वस्थ ही कहा जा के प्रति सशंक हो उठती है। शंका की स्थिति उन्हें कुछ सकता है और न शांत । समाज की लघुतम इकाई परिवार छिपाने को बाध्य करती है, एक-दूसरे के बढ़ते आरोपहै। परिवारों के समूह मोहल्ले के रूप में तथा एक-से धर्म- प्रत्यारोप परिवार में विघटन-अलगाव पैदा करते हैं। फलतः आचार, विश्वास तथा कर्म में आस्था रखने वाले परिवारों दोनों ही पक्ष अपने-आप को असहाय अनुभव करते हैं। उस के समूह जाति या समुदाय कहलाते हैं। यही समुदाय असहायता की अनुभूति में उन्हें मात्र अर्थ ही अपना परस्पर आवागमन, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, सामाजिक- अवलंबन प्रतीत होता है। सास चाहती है, अर्थ पर उसका आर्थिक विनियोजन के माध्यम से समाज का स्वरूप ग्रहण आधिपत्य रहे, उसकी योजनानुसार कार्य हो, बहू भी अपने करते हैं। परस्पर सामंजस्य और शांतिमय जीवन के लिए ये पक्ष में यही चाहती है। यही द्वंद्व अलगाव और रिश्तों की समुदाय कुछ नियम या आचार-संहिता भी बनाते हैं। इसी टूटन को जन्म देता है। फलस्वरूप एकल परिवार आचार-संहिता के माध्यम से वे अपने जीवन के लक्ष्य को अधिकाधिक अर्थार्जन को अपना लक्ष्य बना लेता है। उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। इस धुन में उचित-अनुचित का विवेक भी नहीं रहता और परिवार या परिवारों के वातावरण का सामहिक रूप शुरू हो जाती है भ्रष्टाचार, बेईमानी, ऐश्वर्य प्रदर्शन की ही सामाजिक वातावरण है, किंत विडंबना यह है कि आज ललक, पारिवारिक हिंसा, दहेज प्रताड़ना, उत्पीड़न, नैतिक प्रत्येक परिवार में भौतिक सुख-समृद्धि के होते हुए भी मूल्यों का ह्रास, वृद्धों की उपेक्षा, नारी के जीवन की द्विधा, तनाव दिखाई देता है। व्यक्ति जो-कछ सोचता या चाहता बढ़ता बोझ, धार्मिक उन्माद आदि। यही क्रम परिवार के है, वैसा लाभ या अपेक्षा की पर्ति परिवार के अन्य सदस्यों समूहस्वरूप समुदाय और सामाजिक गतिविधियों में से न होने के कारण उसकी सोच की प्रक्रिया सकारात्मक दृष्टिगत होता है। नहीं होने से नसों में खिंचाव होता है, जो सोचने-समझने राजनीति का परिदृश्य भी कुछ ऐसा ही है। राजनीति की शक्ति को ही अवरुद्ध कर देता है। परिणामस्वरूप का अर्थ है-'राज्ञा नीति' अर्थात् शासक या शासन परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति मन में क्रोध उत्पन्न होता संचालन की नीति। वर्तमान में राजनीति में आए 'राजन' है और यही क्रोध जब झुंझलाहट में बदलता है तो परिवार शब्द का लोकतंत्रात्मक शासन पद्धति में अर्थ होगा 'सत्ता ARE स्वर्ण जयंती वर्षH ___ जैन भारती 138 • अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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