Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 109
________________ सभी अविचारणीय पर विचार करते हैं, अनिर्वचनीय को प्रकट करना चाहते हैं तथा न जानने की क्षमता होते हुए भी जानने का प्रयास करते हैं, जिसके कारण हमारी वाणी एवं विचार में दोष उत्पन्न होता है। विश्व के समस्त संघर्षों एवं विवादों का इतिहास अज्ञान एवं एकांत के कारण उत्पन्न असहिष्णुता का सिद्धांत है । अनेकांत मनुष्य को अपूर्ण इंद्रियों द्वारा अपूर्ण ज्ञान से परिचित करा उसे संकुचित परिधि से बाहर निकालने का प्रयास करता है तथा निर्णय लेने से पूर्व वस्तु एवं परिस्थिति के विधेयक एवं नकारात्मक दोनों पक्षों पर विचार करने को प्रेरित करता है। निश्चित रूप से यदि मनुष्य ने विरोधी विचारों को भी समझने में विवेक बुद्धि का सहारा लिया होता तो संसार भर से काफी मात्रा में युद्ध एवं हिंसक संघर्षो का समापन संभव होता। यदि संसार के राजनीतिज्ञ भी अनेकांत के स्वरूप को ठीक तरह से समझ लें तो बहुतकुछ संभव है कि संसार में और युद्धों का नग्न नृत्य देखने को न मिले। क्योंकि अनेकांत से विरोधी धर्म समन्वय की तरह मानव समता का भी बोध हो सकता है और मानव समता का ज्ञान होने से आपसी विवादों का अंत होना संभव है। वस्तुतः अनेकांत वैचारिक अहिंसा को पुष्ट आधार प्रस्तुत कराता है। जिस क्षण से मनुष्य अपने विरोधी को उसकी दृष्टि एवं विचारों से जानने का प्रयास करता है, उसी क्षण से उसमें सहिष्णुता की भावना का विकास होने लगता है जो अहिंसा के व्यवहार हेतु प्रथम आधारभूत आवश्यकता है। संसार के समस्त हिंसक क्रियाकलापों के स्रोत को विभिन्न सिद्धांतों एवं विश्वासों के में पाया जा युद्ध सकता है । अनेकांत मनुष्य की चेतना परिष्कृत कर तथा मनुष्य के चिंतन को लचीला बनाकर हिंसक क्रियाकलापों को रोकने की सामर्थ्य रखता है। वास्तव में काल, द्रव्य एवं क्षेत्र के आधार पर अस्तित्व की सुरक्षा हेतु लचीला व्यक्तित्व ही सहयोगी हो सकता है, कहा भी गया कि 108 ● अनेकांत विशेष सहिष्णुता आदि। जीवन के विभिन्न एवं आवश्यक क्षेत्रों यथा— पारिवारिक राजनीतिक व धार्मिक क्षेत्रों में अनेकांत का सिद्धांत दृष्टिकोण परिवर्तन में सहायक होकर संघर्ष निवारण के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि का निर्माण कर सकता है। यही आईने कुदरत है, यही दस्तूरे गुलशन है लचक जिनमें नहीं होती, वे शाखें टूट जाती हैं। यदि मनुष्य अनेकांत सिद्धांत के वास्तविक रूप से परिचित होकर इसे ग्रहण करे तो वह समझ सकेगा कि 'फ्रेंच' या 'रसिया' की क्रांति की अपेक्षा वास्तविक क्रांति वह है जो सभी संभव पक्षों के मतों के संदर्भ में अपने विचारों को परिवर्तित कर पाने में सक्षम हुआ है या भविष्य में हो पाएगा। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अनेकांत का अर्थ है-सह-अस्तित्व, समन्वय, सापेक्षता तथा न देना । Jain Education International पारिवारिक क्षेत्र में अनेकांत समाज की विभिन्न इकाइयों में परिवार एक महत्त्वपूर्ण इकाई है । अनेकांत दृष्टि का प्रयोग पारिवारिक कलह का शमन करने में सहायक हो सकता है। पारिवारिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर परिवारों में और परिवार के सदस्यों में संघर्ष टालकर शांतिपूर्ण वातावरण का निर्माण होते हैं। पिता-पुत्र तथा सास-बहू इन दोनों विवादों में मूल करता है। सामान्यतः पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केंद्र कारण दोनों का दृष्टिभेद है। पिता जिस परिवेश में पोषित हुआ, उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है। जिस मान्यता को स्वयं मानकर बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है। पिता की दृष्टि अनुभव - प्रधान होती है, जबकि पुत्र की तर्क-प्रधान । यही स्थिति सास-बहू की होती है। सास यह अपेक्षा करती है कि जैसा जीवन उसने स्वयं बहू के रूप में जीया था उसकी बहू भी वैसा ही जीए। जबकि बहू अपने युग के अनुरूप और भी वैसा ही जीए। जबकि अपने मातृ-पक्ष के संस्कारों से प्रभावित जीवन जीना चाहती है। मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा होती है कि वह उतना ही स्वतंत्र जीवन जीए जैसा वह अपने माता-पिता के पास जीती थी। इसके विपरीत सुसराल पक्ष उससे एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है। यही सब विवाद के कारण बनते हैं। इनमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने का प्रयास नहीं किया जाएगा, तब तक संघर्ष एवं विवाद समाप्त नहीं होंगे। सहिष्णुता का अर्थ है— अपने संवेगों पर नियंत्रण होना। जिसका अपने संवेगों पर नियंत्रण होगा, वही शक्तिशाली हो सकेगा। संवेगों पर नियंत्रण के लिए सहिष्णुता की साधना का अभ्यास अत्यंत अपेक्षित है, तभी उसका उपयोग व्यावहारिक क्षेत्र में किया जा सकता है। दूसरे के विचारों के प्रति सहिष्णु रहे, मात्र अपने दृष्टिकोण के प्रति आग्रह न रहे, इसके लिए सहिष्णुता का विकास अपेक्षित है यथा 1. भावात्मक संवेगों पर नियंत्रण, 2. अन्यों के विचारों को समझना, 3. अहं और गर्व की भावना को महत्त्व स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only मार्च मई, 2002 www.jainelibrary.org

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