Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ खैर यदि वे ऐसा कहें तो यह उनकी मर्जी किंतु तब वे सर्वथा नित्य है। (किन्तु) जैन दर्शन के लिए नित्यानित्य का अपने सापेक्षतावाद को निराग्रहता, अन्य मतों के प्रति सिद्धांत सार्वभौम है। जैसे आकाश नित्यानित्य है वैसे ही उदारता और विनम्रता आदि का द्योतक नहीं कहें, इनसे घट भी नित्यानित्य है।'' किंतु वह कैसे? घट यदि पर्याय है इस सापेक्षतावाद का कोई संबंध नहीं है। तो वह सर्वथा अनित्य ही हो सकता है, वह नित्य कैसे अब जैनों के प्रतिपादन की असमीचीनता और होगा? इसी प्रकार, आकाश यदि द्रव्य है तो वह सर्वथा स्थूलता देखें। जैन घट-पट आदि को परमाणु-द्रव्य के पर्याय नित्य ही हो सकता है, वह अनित्य कैसे होगा? यदि आप कहते हैं। प्रथम तो, परमाणु-संघात एक-द्रव्य है और यह कहते हैं कि नहीं, कुछ भी केवल द्रव्य या केवल पर्याय नहीं हो सकता, तो आपको 'घट नित्यानित्य है' ऐसा नहीं कह परमाणु-संघात, या एक-एक परमाणु भी, अपरिवर्तनशील होते हैं, यही स्वीकार करने का कोई आधार नहीं है। किंतु कर ऐसा कहना चाहिए कि 'वह वस्तु जो परमाणु पक्ष में इसे यदि जाने भी दें तो भी, घट-पट आदि परमाणुओं के द्रव्य और घट पक्ष में पर्याय है वह नित्यानित्य है।' किंतु पर्याय हैं, यह कहना अविचार की पराकाष्ठा है, क्योंकि घट यह कोई कहने की बात ही नहीं है, क्योंकि आप अस्तित्व मात्र को द्रव्य-पर्यायात्मक ही मानते हैं और परिणामतः या पट वस्तुगत कुछ होते ही नहीं, ये तो मनुष्य द्वारा आपके लिए ऐसा कुछ हो ही नहीं सकता जो केवल द्रव्य कल्पित आकार या दृष्ट प्रत्यय होते हैं जो द्रव्य-पर्यायात्मक या केवल पर्याय हो। ऐसी अवस्था में आपको कहना चाहिए भौतिक वस्तु को उपादान कर इंद्रिय-ग्राह्य रूप में व्यक्त होते कि 'घट, जोकि पर्याय है, अनित्य है और आकाश, जोकि हैं। इसी से ये एक बार किसी उपादान में आविर्भूत होकर द्रव्य है, नित्य है, क्योंकि इसमें यह पूर्वगृहीत है कि घट का उस उपादान की संहति के छिन्न होने तक अपरिवर्तित रूप कोई द्रव्य पक्ष भी है जो नित्य है और आकाश का पर्याय में ही बने रहते हैं। उपादानों में आविर्भूत इन अलौकिक सत्त्वों पक्ष भी है जो अनित्य है।' किंतु यह कहना कि घट भी का केवल प्राग्भाव और ध्वंसाभाव ही होता है, बीच की नित्यानित्य है और आकाश भी, भ्रांतिजनक है। यह अवधि में ये ज्यों-के-त्यों ही बने रहते हैं। यह बात पुस्तक भ्रामकता तब द्विगुणित हो जाती है जब आप वैशेषिक दर्शन के उदाहरण से अधिक स्पष्ट हो जाएगी–कागज या मसि को अपने से विपरीत ऐकांतिक बताते हुए कहते हैं कि के परिवर्तन से पुस्तक में कोई परिवर्तन होता है, ऐसा नहीं 'वैशेषिक पृथ्वी को कारण रूप से नित्य और कार्य रूप से कहा जा सकता। यही बात घट-पट आदि में भी है। द्रव्य अनित्य मानते हैं और इस प्रकार नित्य और अनित्य को पर्याय की दृष्टि से तो वास्तव में ये अवस्तुएं हैं, जिन्हें वेदांती विभागशः देखते हैं।' वह तो आप भी द्रव्य और पर्याय का और बौद्ध ठीक ही विकल्प या नाम-रूप कहते हैं अथवा आप विभाग कर वस्तु को एक विभाग में नित्य और दूसरे इन्हें दूसरे प्रकार की वस्तुएं कह सकते हैं लोकोत्तर प्रकार विभाग में अनित्य देखते हैं। की, जो द्रव्य-पर्यायात्मक नहीं होतीं। निश्चय ही ये भी किसी इसी प्रकार स्याद्वाद के संबंध में भी हम संक्षेप में ज्ञान के लिए अपनी समग्रता में गम्य नहीं होती, किंतु इनका विचार करेंगे। सर्वप्रथम यहां यह देखना चाहिए कि स्याद्वाद पक्ष-ग्रहण स्याद्वाद की सप्तभंगी या अभंगी का विषय नहीं का संदर्भ क्या है, ज्ञान या कि कथन ? इस संबंध में भी जैनों होता, क्योंकि इनकी सत्ता देश या कालपरक नहीं होती। में मतभेद और अस्पष्टता है। उदाहरणतः आचार्यश्री महाप्रज्ञ इनकी समग्रता केवल एक आयाम में अगम्य होती है और इसे 'प्रतिपादन-शैली' कहते हैं जबकि आचार्य समन्त भद्र वह है गहनता का आयाम, जो अपने को अन्तःसाक्षात्कार 'क्रमभावि ज्ञान' कहते हैं। यों जैसा कि हमने पीछे देखा, की गहनता के अनुपात में उद्घाटित करता है। विचार और आचार्यश्री महाप्रज्ञ इसे तत्त्वमीमांसीय भी कहते हैं। इसके ये भाव आदि इसी प्रकार की सत्ताएं हैं। दोनों ही निरूपण युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होते। 'प्रतिपादनद्रष्टव्य है कि जैन इसके आगे भी व्यामिश्र करते हैं। शैली' का क्या अर्थ है? कोई भी लेखक जैसे लिखता है उसे अपने अनेकांत को सर्वव्यापी दिखाने के लिए वे ऐसी बातें उसकी प्रतिपादन-शैली कहते हैं और प्रायः किन्हीं भी दो भी करते हैं, जैसे 'नित्यानित्य का सिद्धांत कुछ दर्शनों को मौलिक लेखकों की प्रतिपादन-शैलियां भिन्न होती है। किंतु मान्य है, किंतु वह (उनके लिए) सार्वभौम नहीं है, वह इसी शैली-भेद का प्रतिपाद्य से कोई अनिवार्य संबंध नहीं विभाग रूप से मान्य है। जैसे (उनके अनुसार) घट अनित्य होता। उदाहरणतः शंकराचार्य, श्रीहर्ष और व्यासतीर्थ की है, आकाश सर्वथा नित्य है, दीपकनिका अनित्य है, आत्मा प्रतिपादन-शैलियों में मौलिक भेद है जबकि उनका सिद्धांत HHHHHHHHHHE स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती अनेकांत विशेष .25 जित हा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152