Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 55
________________ अनेकांनात्मक स्वरूप : ज्ञानमीमांसीय संदर्भ डॉ. राजकुमारी छैन Datti जेन दार्शनिक कहते हैं कि ज्ञान निर्विकल्पक न होकर सदेव सविकल्पक ही होता है तथा उर विषय परस्पर निरपेक्ष धर्म तथा धर्मी आदि न होकर धर्मधयत्मिक वस्तु होती है, जो जेय पदार्थ अनेकांतात्मक स्वरूप का परिचायक है। एक वस्तु के वस्तुत्व के निष्पादक एक-अमेक, भेदन अभेद, सामान्य-विशेष आदि सप्रतिपक्षी धर्मयुमलों का युगपत् सद्भाव अनेकांठ कहलाता है। -सी भी वस्तु का ज्ञान उसकी विशेषताओं के होती है, जो ज्ञेय पदार्थ के अनेकांतात्मक स्वरूप का 'ज्ञान से होता है। हम हरित रंग, विशेष परिचायक है। एक वस्तु के वस्तुत्व के निष्पादक एकआकार आदि अनेक गुणों के ज्ञानपूर्वक एक द्रव्य–पत्ते को अनेक, भेद-अभेद, सामान्य-विशेष आदि सप्रतिपक्षी धर्मजानते हैं। तना, शाखाओं, पत्तों आदि अनेक अवयवों के युगलों का युगपत् सद्भाव अनेकांत कहलाता है। यह वस्तु ज्ञानपूर्वक एक अवयवी वृक्ष ज्ञात होता है। ज्ञान का यह सर्वथा सत् रूप ही है अथवा असत् रूप ही है, एक रूप ही सर्वविदित स्वरूप वस्तु के एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक है अथवा अनेक रूप ही है; नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, स्वरूप को प्रस्तुत करता है, जो विभिन्न भारतीय दार्शनिकों इस प्रकार सर्वथा एकांत के त्याग स्वरूप है।' इससे यह के लिए गंभीर समस्या है। वे कहते हैं कि एक और अनेक, प्रतिपादित होता है कि जो तत् है वही अतत् है, जो एक है भेद और अभेद परस्पर विरोधी धर्म होने के कारण एक ही वही अनेक भी है, जो सत् है वही असत् भी है; जो नित्य है वस्तु का स्वरूप नहीं हो सकते। जो वस्तु एक है, उसके वही अनित्य भी है। इस प्रकार एक वस्तु की वस्तुरूपता के परस्पर भिन्न-भिन्न अनेक स्वरूप किस प्रकार हो सकते हैं निष्पादक सप्रतिपक्षी धर्मयुगलों का युगपत् प्रकाशन तथा जो स्वरूपतः परस्पर भिन्न-भिन्न हैं. वे एक अभिन्न अनेकांत है। वस्तु किस प्रकार हो सकते हैं ? इसलिए नैयायिक सत्ता को ज्ञान का विषय अनेकांतात्मक—एकानेकात्मक, परस्पर पृथक-पृथक धर्म और धर्मीरूप, बौद्ध उसे मात्र भेदाभेदात्मक सामान्यविशेषात्मक वस्तु होती है। हम अनेक धर्मरूप तथा अद्वैत वेदांती उसे मात्र धर्मारूप स्वीकार करते सहवर्ती गणों और क्रमवर्ती पर्यायों के ज्ञानपूर्वक एक द्रव्य हैं। इन सभी दार्शनिकों के अनुसार उनके द्वारा मान्य सत्ता को तथा अनेक अवयवों के ज्ञानपूर्वक एक अवयवी को के स्वरूप का ज्ञान इंद्रियार्थ सन्निकर्ष के प्रथम क्षण में जानते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि एक वस्तु के अनेक अथवा समाधि की अवस्था में होने वाले निर्विकल्पक गुण, पर्याय, अवयव आदि क्रमशः गुणी, पर्यायी और साक्षात्कार द्वारा होता है। यद्यपि सविकल्पक ज्ञान वस्तु को अवयवी के विभिन्न अंश हैं; धर्म हैं; स्वभाव तथा गुणी उसके अनेक धर्मों द्वारा और इसलिए एकानेकात्मक स्वरूप अपने अनेक गुण आदि में व्याप्त एक अखंड सत्ता हैं। में जानता है, लेकिन बौद्ध और अद्वैत वेदांत के अनुसार यह दूसरे शब्दों में एक द्रव्य के अनेक सहवर्ती स्वभाव ज्ञान वस्तभत न होकर अनादिकालीन अज्ञानजनित है और उसके विभिन्न गुण हैं। इन अनेक गणों में नाम, लक्षण, इसलिए इसका व्यावहारिक महत्त्व होते हुए भी परमार्थतः प्रयोजन, आदि की अपेक्षा भेद' होने पर भी सत्तापेक्षया यह ज्ञान मिथ्या है। अभेद है। उनका यह पारस्परिक तादात्म्य ही उनकी एक जैन दार्शनिक कहते हैं कि ज्ञान निर्विकल्पक न होकर द्रव्यरूपता है। तादात्म्य तत्+आत्म्य अर्थात् ये परस्पर सदैव सविकल्पक ही होता है तथा उसका विषय परस्पर एक-दूसरे की आत्मा या स्वभाव होते हुए, एक-दूसरे में निरपेक्ष धर्म तथा धर्मी आदि न होकर धर्मधात्मक वस्त अंतर्व्याप्त होते हुए एक द्रव्यरूपता को प्राप्त कर रहे हैं।' स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 54. अनेकांत विशेष । मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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