Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 32
________________ मत द्वारा वेदांती को दिए गए उत्तर में भी यही बात लागू अलग से विचार होना चाहिए। अभी तो जैनों के भाषाहो जाएगी। पारमार्थिक सत्य अर्थात् ब्रह्म तथा व्यावहारिक दर्शन पर विस्तार से विचार किए बिना हम इतना ही कह सत्य अर्थात् जगत् के बीच केवल शाब्दिक संबंध नहीं है सकते हैं कि जैनों के अनुसार वस्तु के संबंध में सभी संभव और इसलिए माया माननी पड़ती है और अंततोगत्वा सापेक्ष वक्तव्य सात प्रकार के ही हो सकते हैं, न कम न माया और ब्रह्म के बीच उस संबंध को अनिर्वचनीय कहना ज्यादा। पड़ता है। जैन दार्शनिकों के सामने यह समस्या है कि यदि इसे सप्तभंगी नय कहते हैं। सप्तभंगी नय का महत्त्व अर्थहीन शब्दजाल वाली व्याख्या स्वीकार कर ली जाए , र कर ला जाए यह है कि यद्यपि नय अनंत हैं, तथापि उन सबका समावेश तो ऊपर दिए गए उनके प्रत्युत्तर व्यर्थ हो जाते हैं। दूसरी है; दूसरा इन सात में से किसी एक में हो सकता है। या ओर यदि उनके उपर्युक्त प्रत्युत्तर समीचीन हैं तो अर्थहीन (क) सर्वत्रायं ध्वनिर्विधिनिषेध प्रतिषेधाव्यं स्वार्थां शब्दजाल वाली व्याख्या छोड़नी पड़ेगी और साथ-साथ जैनियों को ऐसा कोई कार्यकारी उपाय खोजना होगा, आभिदधानः सप्तभंगीमनुगच्छति। जिससे पता चले कि यह कैसे किया जा सकता है? (प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार) हेमचंद्र के निम्न श्लोक से यह संकेत मिल सकता है प्रश्न होता है कि भाषा अपना अर्थ देने के बाद सात कि आपाततः अर्थहीन शब्दजाल वाले दृष्टिकोण के पीछे भागों में सात प्रकार से ही क्यों फैलनी चाहिए? जैन ग्रंथ कौन-सा गंभीर, दार्शनिक तथ्य छिपा है इस प्रश्न का उत्तर देने में पूरी तरह अस्पष्ट हैं। अधिकतर ग्रंथ एक ही प्रकार का उत्तर यांत्रिक रूप से दोहराते रहते हैं। सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च। अन्यथा जैन तर्क भाषा में हमें यह उत्तर मिलता हैसर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्यापि असंभवः। (ख) इयञ्च सप्तभंगी वस्तुनि प्रति-पर्यायं सप्तविध इसका संबंध बौद्धों के अपोहवाद से है, किंतु इसका शर्माण। संभवात सप्तविधोसंशयोत्थापित सप्तविध चर्चा हमें विषयांतर में ले जाएगी, अतः हम इसे छोड़ जिज्ञासामूल-सप्तविध-प्रश्नानुरोधात् उपपाद्यते। देते हैं। (जैन तर्क भाषा, पृ. 22) हम यह कहना चाहते हैं कि यदि जैन मत के वादिदेवसूरि के प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार में यही उपर्युक्त प्रत्युत्तर केवल शास्त्रार्थ में जीतने के लिए किए उत्तर थोड़ा विस्तार से दिया गया है, किंतु कोई नया तथ्य गए शाब्दिक खेल न माने जाएं और इसे गंभीरता से लिया । उसमें नहीं है। जाए तो फिर हमें यह व्याख्या माननी होगी कि जैन मत के अनुसार सत् सहित सभी धर्म सापेक्ष हैं। अर्थात् जैन मत फिलहाल यह प्रश्न छोड़ दिया जाए कि जैन मत किस के अनुसार 'बाई' और 'लघुत्तर' इत्यादि की तरह सभी प्रकार अन्योन्यव्यावर्तक इन सप्तभंगों तक पहुंचे। पहले धर्म सापेक्ष धर्म हैं और 'X' है 'P' जैसा वक्तव्य केवल हम जैन मत के अनुसार सप्तभंगों की सूची देखें। वे इस संदर्भ-विशेष में सत्य है। चाहे 'X' का कोई भी उद्देश्य । (Subject) हो और 'P' का कोई भी धर्म (Property) ___ 1. स्याद् घटः अस्ति एव । हो। यदि यह सत्य है तो जैन दर्शन के कुछ छिपे हुए पक्षों 2. स्याद् घटः नास्ति एव । पर फ्यूजि तर्कशास्त्र (Fuzzy-Logic) के प्रयोग द्वारा 3. स्याद् घटः अस्ति नास्ति। समुचित प्रकाश पड़ने का लाभ हमें मिल सकता है, किंतु 4. स्याद् घटः अवक्तव्यः एव। यह एक भिन्न विषय है और मैं इसे स्याद्वाद पर विशेष रूप से लिखे जाने वाले एक स्वतंत्र निबंध में चर्चित करने 5. स्याद् घटः अवक्तव्यः अस्ति च । का विचार रखता हूं। 6. स्याद् घटः अवक्तव्य नास्ति च। यह हम पहले ही कह चुके हैं कि अनेकांतवाद, 7. स्याद् घटः अवक्तव्य अस्ति नास्ति च। नयवाद और स्याद्वाद-ये सभी वक्तव्यों की सापेक्षता से जैसा कि प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार और जैन तर्क जुड़े होने के कारण जैन के शब्द और अर्थ के संबंध संबंधी भाषा के देखने से पता नहीं चलता है कि यह विकल्प सिद्धांत से जुड़े हैं। यह बहुत व्यापक विषय है जिस पर संख्या सात ही क्यों है? और इनसे कम या अधिक विकल्प प्रकार हैं बाह 'X' का कोई भी उद्देश्य स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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