Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 64
________________ संभावनाओं से परिपूर्ण परिणमनशील द्रव्य है तथा उसकी 6. अभेदभेदात्मक अर्थतत्त्व तव स्वतन्त्रान्तान्यतरत् खपुष्पम् । विभिन्न संभावनाओं की अभिव्यक्ति निश्चित कारणात्मक युक्त्यानुशासन-7 पूर्वार्द्ध कारणकार्यद्रव्ययोगुणगुणिनोः नियमों के अनुसार घटित होने वाली परिवर्तन की प्रक्रिया कर्मतद्वतो सामान्यतद्वतो विशेषतद्वतोश्च पदार्थान्तरतया द्वारा होती है। सत्ता के इस शक्ति-व्यक्तिमय स्वतन्त्रयो सकृदप्यप्रतीयमानत्वात् सर्वदा अवयवायव्यात्मनो गुणगण्यात्मनः कर्मतद्वदात्मनः सामान्यविशेषात्मनश्च द्रव्यगुणपर्यायात्मक स्वरूप के ज्ञानपूर्वक ही समस्त लोक अर्थतत्वस्य जात्यन्तरस्य प्रत्यशादितः सर्वस्य व्यवहार तथा आध्यात्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ निर्वाधगवभासमात्। संभव है। आज विज्ञान द्वारा पुद्गल द्रव्य में अंतर्निहित —युक्त्यानुशासन टीका; पृ. 22 असीम संभावनाओं को पहचानने तथा उन संभावनाओं की 7. न्यायविनिश्चय 1/3 अभिव्यक्ति की प्रक्रिया को समझकर प्रकृति पर नियंत्रण 8. तत्त्वार्थवार्तिक भाग-1 पृ. 18 2 स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। प्राचीन काल में 9. न्यायविनिश्चय, 1/5 भारतीय मनीषियों ने आत्मा के अनंत शक्तिसंपन्न 10. सत्द्रव्यलक्षणम्, तत्त्वार्थसूत्र 5/29 परिणमनशील स्वरूप को समझने हेतु गहन अनुसंधान कार्य 11. उत्पाव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। तत्त्वार्थ सूत्र 5/30 किया है। उन्होंने न केवल विभिन्न जीवों के ज्ञानादि गुणों की 12. आलाप पद्धति, सूत्र-95 अभिव्यक्ति में घटित हो रही उत्थान-पतन की प्रक्रिया की धर्मी तावत् अनन्तधर्मा जीवादिः, प्रमेयत्वाव्यथानुपपत्ते। व्याख्या हेतु कर्मसिद्धांत का विस्तृत विवेचन किया है, —अष्टसहस्री, पृष्ठ 152 बल्कि उन्होंने इस सत्य का भी प्रतिपादन किया है कि जिस । - 13. अष्टसहस्री, पृष्ठ-152 आत्मा में शक्तिरूप से अनंत दर्शन ज्ञान सुख-वीर्य 14. अष्टसहस्री, पृष्ठ 159 15. सिद्धिविनिश्चय-10/3 विद्यमान है वह वर्तमान समय में अपने-आप को शक्तिहीन, 16. लघीयस्त्रय-62 अज्ञानी और दुखी क्यों महसूस कर रहा है ? साथ ही वह 17. अष्टसहस्री-पृष्ठ 290 अपने इस वर्तमानकालीन व्यक्त स्वरूप का परित्याग कर 18. तत्त्वार्थवार्तिक—पृष्ठ 94 अपने में शक्तिरूप से विद्यमान परमात्मस्वरूप को किस 19. अष्टसहस्री, पृष्ठ 15 प्रकार प्राप्त कर सकता है? ज्ञानार्जन की यह प्रक्रिया तथा 20. प्रमाण वार्तिक, मनोरथ नन्दि वृत्ति, 3/41 इसके फलस्वरूप लौकिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के 21. Encyclopedia of Indian Philosophy. Vol. III लक्ष्यों की सिद्धि हेतु किया जाने वाला पुरुषार्थ-दोनों ही 22. समयसार : गाथा 6-7 कार्य सत्ता के अनेकांतात्मक स्वरूप को सिद्ध करते हैं। संदर्भ : -समयसार, कलश-2 पूर्वार्द्ध 1. सदसन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः। 24. समयसार गाथा : 7 पर अमृतचन्द्राचार्य कृत टीका -अष्टश. अष्टस. पृ. 286 25. अयमेवं न वेत्येनमविचारितगोचरः ।।163 || 2. यदेव तत् तदेव अतत्, यदेवैकं तदेवानेकम्, यदेव सत् जायेरन् संविदात्मानः सर्वेषामविशेषतः। तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यम्, इत्येकवस्तुवस्तुत्व न्यायविनिश्चय, 1/63 उत्तरार्द्ध 64 पूर्वार्द्ध निष्पादक परस्परविरुद्धशक्तिद्वय-प्रकाशनमनेकान्तः। 26. न्यायविनिश्चय विवरण; भाग-1; पृष्ठ-22 -समयसार (आत्मख्याति) स्याद्वाद अधिकार 27. प्रमाणवार्तिकालंकार 2/223 3. गुणगुण्यादि संज्ञादि भेदात् भेदस्वभावः। 28. न्याय कुमुदचन्द्रः भाग-1, पृष्ठ-227 -आलाप पद्धति, सूत्र-112 29. प्रत्यक्षप्रतिसंवेद्यः कुण्डलादिषु सर्पवत्। 4. स्वद्रव्यचटुष्ठमापेक्षया, गुणाः परस्पर स्वभावाः भवन्ति। न्यायविनिश्चय 1/120 पूर्वार्द्ध द्रव्याण्यपि भवन्ति। 30. न्यायविनिश्चय विवरण; भाग-13; पृष्ठ-445 वही, सूत्र-119 31. भेदज्ञानात-प्रतीयेते प्रादुर्भावात्ययौ यदि। वही, सूत्र-120 अभेदज्ञानतः सिद्धा स्थितिरंशेन केनचित्। 5. तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्वति उवदेसो। न्यायविनिश्चय 1/118 -प्रवचनसार, गाथा-87, उत्तरार्द्ध स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002 जैन भारती - अनेकांत विशेष.63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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