Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 95
________________ बेचता नहीं फिरता !' यह बात सुनते ही वह बेहोश होकर गिर पड़ा। उसके सारे चने बिखर गए। वहां उपस्थित व्यक्ति बोले, 'अरे! यह क्या रंग में भंग कर दिया। निकालो इसे यहां से बाहर।' बड़ी मुश्किल से उसे होश में लाया गया। कुछ लोगों ने मिलकर उसके चने इकट्ठे किए। मित्र-वणिक् ने एक सौ का नोट उसके पात्र में रख उसको बंगले से नीचे भेज दिया। वह चने बेचने वाला और कोई नहीं, वही लोहवणिक् था, जो अपने मित्रों के समझाने पर लोहा छोड़कर अन्य खनिज लेने के लिए तैयार नहीं हुआ था। उसने लोहा बेचकर जो पैसा कमाया, कुछ ऋण चुकाने में लगा दिया और बाकी पैसों से चने भूनकर बेचने का धंधा शुरू किया। अपने साथियों का ठाट-बाट देख उसे अपनी बुद्धि पर तरस आ गया। चने बेचे बिना ही सौ का नोट ले रोता-बिलखता वह अपने घर आ गया । पति की आंखों में आंसू देख उसकी पत्नी बोली, 'आज क्या हो गया आपको ? इतनी जल्दी कैसे लौट आए ? चने बिके नहीं? किसी ने आपको पीटा ? क्या हुआ हम गरीब हैं तो, जीने का अधिकार सबको है? आप बोलते क्यों नहीं? मुझे सही बात बताइए, अभी जाकर राजदरबार मैं फरियाद करूंगी...।' पत्नी की सहानुभूति पाकर उसके धैर्य का बांध टूट गया। उसने रोते-रोते अपनी सारी रामकहानी कह सुनाई। पत्नी ने सारी बात सुनी कि उत्तेजित हो गई। बेलन हाथ में लेकर उसे मारने दौड़ी, किंतु तब तक वह घर की दहलीज लांघ चुका था। पीछे से आकर टकराते हुए शब्द ही उसके कानों में पड़े, 'अरे कर्मफूट ! मुट्ठी भर हीरे ही ले आते तो मैं भी अच्छे कपड़े और जेवर पहनकर बैठती, तुम्हारे पीछे तो मैंने जीवन के सारे सुख ही खो दिए। ' अपनी हठधर्मिता के परिणाम को समझकर लोहवणिक बहुत दुखी हुआ, पर अब हो क्या सकता था ? इस प्रसंग से यह स्पष्ट है कि अर्थहीन आग्रह कितना नुकसानदेह हो जाता है। दुनिया में कलह के अनेक कारण हैं। उनमें एक कारण मत का दुराग्रह भी बनता है। । आदमी को अपने नियम व्रत में अवश्य आग्रह रखना चाहिए यानी उसके पालन में वृढ़ता रखनी चाहिए। वृढ़ता भी यहां तक कि मरना मंजूर, पर नियम को नहीं तोडूंगा इस आग्रह की तुलना श्रद्धा और निष्ठा के साथ की जा सकती है। निष्ठा आस्था जो अच्छे तत्त्वों में होती है, उसे सदाग्रह कहा जा सकता है। सदाग्रह ग्राह्य है, कदाग्रह - 94 • अनेकांत विशेष Jain Education International त्याज्य है । सदाग्रह में शक्ति होती है, बल होता है। इसे करता भी कहा जा सकता है, पर वह कट्टरता वांछनीय नहीं जिसके द्वारा हिंसा को महत्त्व दिया जाता है। एक बात को सत्य मानकर आदमी स्वीकार करता है, पर असत्यता स्पष्ट प्रतीत हो तो उसे छोड़ने में संकोच भी नहीं होना चाहिए । यद्यपि यह साहस आसान नहीं है। व्यावहारिक जीवन में दुराग्रह से समस्याएं उत्पन्न होती है अथवा बढ़ती हैं। इसी प्रकार स्वार्थपरक विचारधारा भी पारस्परिक संबंधों को कमजोर बनाती है जहां एक व्यक्ति केवल अपने हित और स्वार्थपूर्ति की बात ही सोचता है, दूसरों के हित पर विचार ही नहीं करता, ध्यान नहीं देता वहां भी मधुर संबंध विच्छिन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार केवल अपनी रुचि को प्रधानता देना और दूसरों की रुचि की उपेक्षा करना भी व्यक्ति व्यक्ति में दुराव पैदा करता है। '... लड़के ने कहा – पिताजी अब मैं आपके साथ भोजन नहीं करूंगा और अकेला भोजन करने के लिए बैठा। पिता यह कहते हुए उसके साथ भोजन करने बैठ गया कि इतने दिन तुम मेरे साथ भोजन करते थे, अब मैं तुम्हारे साथ भोजन किया करूंगा लडका पानी-पानी हो गया अपने पिता के निरहंकार और वात्सल्य भाव पर । मधुरता के साथ पिता ने मूल स्थिति को कायम रख लिया।' ऐसा ही एक प्रसंग आचार्य भिक्षु के जीवन में भी आता है। एक बार स्वामीजी विहार करते हुए देसूर जा रहे थे। मार्ग में घाणेराव के महाराज मिले। उन्होंने पूछा, 'तुम्हारा नाम क्या है ।' स्वामीजी ने कहा, 'मेरा नाम भीखण है । ' वे बोले, 'क्या भीखणजी तेरापंथी तुम ही हो ?' स्वामीजी, 'हां, मैं ही हूं।' उनमें से एक व्यक्ति ने आवेश में आकर कहा, 'तुम्हारा मुंह देखने वाला नरक में जाता है।' स्वामीजी ने तत्काल उलटकर पूछा, 'और तुम्हारा मुंह देखने वाला ?" उसने सिर ऊंचा उठाते हुए गर्वीले स्वर में कहा, 'मेरा मुंह देखने वाला स्वर्ग में जाता है।' स्वामीजी बोले, 'किसी का मुंह देखने मात्र से स्वर्ग या नरक मिलता हो, यह बात तो मैं नहीं मानता, पर हमने तो तुम्हारा मुंह देखा है, तुम्हारे ही कथनानुसार हम तो स्वर्ग या मोक्ष में जाएंगे। तुमने चूंकि हमारा मुंह देखा है, इसलिए तुम नरक के भागी बनोगे।' यह सुनकर वे सब चुपचाप आगे चले गए। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only मार्च - मई, 2002 www.jainelibrary.org

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