Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 63
________________ हो जाती है, यदि उसे फ्रिज में रख दिया जाए तो यह प्रक्रिया के कारण सदैव विशेष पर्याय-स्वरूप होकर ही अस्तित्व अत्यंत मंद हो जाती है...। इस प्रकार प्रत्यक्षादि प्रमाणों रखता है तथा पर्यायरहित द्रव्य की सत्ता कभी नहीं होती। द्वारा एक वस्तु के अनेक अन्वयव्यतिरेकी दृष्टांतों के दूसरे शब्दों में एक द्रव्य का वर्तमानकालीन व्यक्त अस्तित्व ज्ञानपूर्वक होने वाले कारण-कार्य संबंधों के ज्ञान के परिणाम ही पर्याय है। यह वर्तमानकालीन व्यक्ति या पर्याय ही संपूर्ण स्वरूप द्रव्य के शक्ति-व्यक्तिमय द्रव्य-पर्यायात्मक स्वरूप द्रव्य है, क्योंकि द्रव्य के समस्त गुण अपनी संपूर्ण का ज्ञान निरंतर अधिक स्पष्ट और परिष्कृत होता जाता है। संभावनाओं के साथ उस द्रव्य का स्वरूप हैं। इसलिए द्रव्य बौद्ध कहते हैं कि द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु का ज्ञान के गुणात्मक स्वरूप के ज्ञान में जितनी वृद्धि होती जाती है, यथार्थ न होकर अनादि वासनाजनित भ्रम मात्र है। प्रत्येक उसके द्रव्य-पर्यायात्मक स्वरूप का ज्ञान भी उतना ही वस्तु मात्र एक क्षण स्थाई होती है तथा प्रत्यक्ष द्वारा सामने वैशिष्ट्य प्राप्त करता जाता है। सूई को 'बारीक सूई' रूप स्थित वर्तमानकालीन सत्ता को ही विषय बनाए जा सकने के विशिष्ट स्वरूप में जानने पर उसकी कपड़ा सिलने रूप कारण यह क्षणिक सत्ता ही प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात होती है। अनेक अर्थक्रिया सामर्थ्य का ज्ञान भी विशिष्टता प्राप्त कर सकता क्रमवर्ती प्रत्यक्षों द्वारा ज्ञात हो रहे अनेक क्षणिक पदार्थों में है। व्यक्ति को परवर्ती अनुभवों द्वारा यह बोध हो सकता है विद्यमान सादृश्य के कारण हमारा मन उन पर एकत्व का कि इस बारीक सूई से पतले कपड़े की सिलाई की जा आरोपण कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप हमें उन क्षणिक सकती है, बारीक कशीदा निकाला जा सकता है। लेकिन तत्त्वों की एक द्रव्यरूपता का भ्रम होता है। इसलिए सत्ता के इससे मोटा कपड़ा सिला जा सकना संभव नहीं है, इस द्रव्य-पर्यायात्मक स्वरूप का ज्ञान मिथ्या है। बारीक सूई से पैर में चुभी हुई सींक को निकाला जा सकता जैन दार्शनिक उपर्युक्त आपत्ति को अस्वीकार करते है, लेकिन यदि यह स्वयं पैर में चुभ गई तो रक्त के साथ हुए कहते हैं कि निश्चित रूप से प्रत्यक्ष का विषय संचार करते हुए व्यक्ति की मृत्यु का कारण भी बन सकती वर्तमानकालीन सत्ता ही होती है। भूत, भविष्यकालीन पर्यायें है। सूई की लौहरूपता, पुद्गल द्रव्यरूपता आदि युगपत् प्रत्यक्ष का विषय नहीं होतीं। लेकिन यह वर्तमानकालीन विद्यमान विशेषताओं के ज्ञान में जितनी-जितनी वृद्धि होती पदार्थ अपनी पूर्वापर पर्यायों से पूर्णरूपेण असंबद्ध, स्वतंत्र है व्यक्ति के उस पर्याय के द्रवणशील स्वभावमय द्रव्यात्मक क्षणिक पर्याय मात्र ही नहीं है, बल्कि वह युगपत् और स्वरूप के ज्ञान में भी उतनी ही वृद्धि होने की संभावना क्रमिक रूप से अनेक कार्यों के संपादन की सामर्थ्य से उत्पन्न हो जाता है। परिपूर्ण तथा उत्तरवर्ती पर्यायरूप से परिणमन की प्रवृत्तिमय किसी भी वस्तु को जानने का अर्थ सामान्य रूप से द्रव्य भी है। उसके इस वर्तमान पर्याय विशिष्ट द्रव्यरूपता उस वस्तु के समस्त गुणों को जान लेना मात्र नहीं है, बल्कि के कारण हम प्रत्यक्ष द्वारा उसके वर्तमानकालीन व्यक्त उसके लिए यह जानना भी आवश्यक है कि इन गुणों की स्वरूप को जानने के उपरांत उसकी अर्थक्रियासामर्थ्य का किन-किन परिस्थितियों में क्या-क्या अवस्थाएं होती हैं। अनुमान कर उसके द्वारा कार्य करने में प्रवृत्त होते हैं तथा इसलिए शास्त्रों में आत्मा के स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि कर सफलता प्राप्त करते हैं। आत्मा के गुण-अस्तित्व, वस्तुत्व-ज्ञान, दर्शन, सुख-वीर्य उदाहरण के लिए किसी वस्तु का 'यह सूई है' रूप से आदि का सामान्य रूप से ही वर्णन नहीं किया गया, बल्कि प्रत्यक्ष होते समय हम उसके ऐसे विशिष्ट स्वरूप को जानते यह भी बताया गया है कि आत्मा के इन अनेक गुणात्मक हैं जिसमें धागा पिरोकर उससे सिलाई की जा सकती है, . सामान्य स्वरूपों का किन-किन परिस्थितियों में किन-किन इस विशिष्ट स्वरूप के ज्ञानपूर्वक ही हम उसकी अर्थक्रिया विशेष स्वरूपों में परिणमन होता है। आत्मा के इस द्रव्यसामर्थ्य का अनुमान करके कपड़ा सिलने की क्रिया में प्रवृत्त पर्यायात्मक स्वरूप के ज्ञानपूर्वक ही व्यक्ति अनिष्ट गतियों होते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं। एक ही वस्तु का रूप से परिगमित होने से बचकर अपने अभीष्ट स्वरूप प्रत्यक्ष, अनुमानादि प्रमाणों से पुनः-पुनः ज्ञान तथा उसके मुक्तावस्था को प्राप्त कर सकता है। अनुसार काय करन हतु प्रवृत्ति उस वस्तु क द्रव्य- उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रत्येक वस्तु पर्यायात्मक होने पर ही संभव है। अनेकांतात्मक-एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक, सामान्यएक द्रव्य अपनी अनंत संभावनाओं से परिपूर्ण तथा विशेषात्मक, नित्यानित्यात्मक सत्ता है। जगत में विद्यमान निरंतर नई पर्याय रूप से परिणमन की प्रवृत्तिमय तत्त्व होने प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थ अनेक सहवर्ती गुणों और अनंत स्वर्ण जयंती वर्ष 62. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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