Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 45
________________ अनेकांठ : कुछ समस्याएं प्रो. दयाकृष्ण SHNAMEDIAS अगर हम ज्ञान की बात को छोड़कर ज्ञान के विषय की बात करें और ज्ञान के स्वरूप को उसके विषय के रूप से । अनिवार्य रूप से संबंधित देखें तो शायद अनेकांत का सिद्धांत जो बात कहने की चेष्टा करता है यह अधिक समझ में आए। साधारणत: ज्ञान का विषय देश और काल में स्थित होता है और जो काल में है उसमें परिवर्तन होना स्वाभाविक । । है। परंतु 'ज्ञान' तो यह कहता है कि 'ऐसा है' या 'ऐसा नहीं है, और इस 'कहने का काल की सत्ता परिवर्तनशीलता | से कोई संबंध दिखाई नहीं देता। यही नहीं, वह तो उस सतत परिवर्तनशीलता को नकारता दिखाई देता है। उसके लिए तो ऐसा लगता है--सब कुछ चिरंतन है, स्थिर है, कहीं कोई बदलाव की गुंजाइश ही नहीं है। जो है' सो है, जो । 'नहीं' है वह नहीं है। पर अगर काल सत्य है, तो जो 'हे', उसका 'नहीं होना अवश्यंभावी है; और इसी प्रकार शायद डो'नहीं है। उसका होना दूसरी बात उतमी सच नहीं लगती, लेकिन अगर 'नहीं होने को, 'होने के संदर्भ में देखें । तो शायद वह उतनी गलत नहीं लगेगी। - अनेकांत पर 'स्वतंत्र' विचार तभी हो सकता है 'एक' और 'अनेक' का भेद स्वयं सापेक्ष है। यह बात जजब उसे उसके इतिहास से 'मुक्त' किया जा 'अवयवी' और 'अवयव' के संबंध में साफ दिखाई देती है। सके। उसका इतिहास जैन दर्शन के इतिहास से इस तरह अवयवी 'एक' है, अवयव अनेक और यदि थोड़ा और ध्यान बंधा हुआ है कि उसकी मुक्ति की बात करना उसे उस दें तो क्या 'एक' है और क्या 'अनेक'—इसकी सीमा बांधना दार्शनिक चिंतन से विच्छिन्न करना होगा जो 'जैन' दर्शन के मुश्किल होगा। गणित के साधारण विद्यार्थी को भी यह पता नाम से जाना जाता है। है कि विभाजन की प्रक्रिया अनंत है और अगर ऐसा है तो फिर यह बात एक तरह से समस्त भारतीय चिंतन पर भी यह कहना कि क्या एक है और क्या अनेक, इसी बात पर लागू होती है, क्योंकि सभी चिंतन की परंपरा के संप्रदाय निर्भर करेगा कि आप उसको किस प्रकार देख रहे हैं या किस विशेष से अपने को बंधा मानते हैं। 'संदर्भ' में या किस प्रयोजन के लिए। इस संदर्भ में दूसरी बात जो ध्यान में रखनी है, वह गणित की बात को हम यहां आगे नहीं बढ़ाना चाहते, यह है कि अगर किसी विचार का 'इतिहास' है, तो वह सदा पर जो लोग 'एक' या 'अनेक' की चर्चा करते हैं उन्हें कम एक-सा ही रहा है यह नहीं माना जा सकता। 'अनेकांत' से कम इसका ध्यान रखना जरूरी है। हो, या कुछ और, अगर उसका इतिहास है तो यह अनिवार्य अनेकांत की चर्चा का दूसरा संदर्भ 'सत्य' या रूप से मानना पड़ेगा कि 'कालक्रम' में उस पर जो विचार 'असत्य' से है और जब तक इन पर हम स्वतंत्र विचार नहीं हुआ है उसमें अवश्य महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए होंगे, और करेंगे तब तक अनेकांत की चर्चा अधूरी ही रहेगी। अगर ऐसा है, तो यह भी मानना पड़ेगा कि उसमें और भी सत्य की बात करते ही जो पहला सवाल उठता है, परिवर्तन हो सकते हैं। वह यह है कि इसकी बात केवल ज्ञान के बारे में ही हो अनेकांत का विरोधी 'एकांत' या 'ऐकांतिक' ही हो सकती है, या जो ज्ञान का विषय है उसके बारे में भी। सकता है। पर 'जो भी है' वह तो अपने आप में 'एक' ही ज्ञान के संदर्भ में सत्य, असत्य की बात तो सभी करते हैं समझा जाएगा। 'अनेक' भी 'एक-एक' के मिलने से ही और अनेकांत की बात भी अधिकतर इसी संदर्भ में की बनता है और अगर ऐसा नहीं है तो फिर 'अनेक' स्वयं जाती है। आमतौर पर करीब-करीब सभी यह मानते हैं कि 'एक' का रूप ले लेगा। कोई बात या तो 'सच' होती है या 'झूठ' और अगर वह स्वर्ण जयंती वर्ष 44. अनेकांत विशेष जैन भारती मार्च-मई, 2002 ............. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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