Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 91
________________ से घड़ा (आकार) पहले है। कुंभकार ने एक घड़ा देखा। अरस्तू का न्याय सिद्धांत भी अनैकांतिक था। यद्यपि उस घड़े से वह बहुत प्रभावित होता है। उसके अनुरूप वह वह दो प्रकार का न्याय मानता थास्वयं घड़ा बनाना चाहता है। पूर्व घड़े अर्थात् लक्ष्यकारण 1. वितरणात्मक न्याय, 2. सुधारात्मक न्याय। से प्रेरित होकर वह घड़ा बनाना चाहता है। अतः वितरणात्मक न्याय के अंतर्गत वह व्यक्तियों को लक्ष्यकारण की दृष्टि से आकार पूर्व में भी है। इस प्रकार योग्यता के अनुसार सम्मान और पुरस्कार देने का हिमायती यह सिद्ध होता है कि अरस्तू के दर्शन में आकार पहले भी था। किंतु सुधारात्मक न्याय के अंतर्गत वह व्यक्तियों के है और पश्चात् में भी। अपराध के अनुसार दंड का भी हिमायती था। वितरण एवं नैतिकता और अनेकांत-अरस्तू के तात्त्विक सधार का मल्यांकन वह निरपेक्ष रूप में नहीं करता था। विवेचन में ही अनेकांत दृष्टिगोचर नहीं होता, अपितु नैतिक उसके अनुसार— Justice is relative to persons and चितन में भी अनेकात परिलक्षित होता है। उसके अनुसार a just distribution is one in which the relative नैतिकता की दृष्टि से भावना उपयोगी भी है और उपयोगी values of the things given correspond to those of नहीं भी है। उपयोगी इसलिए है कि भावना से ही दूसरों का योगा इसलिए है कि भावना स हा दूसरा का the persons receiving.' दुख-दर्द समझकर उन्हें सहयोग दे सकते हैं और अनुपयोगी इस प्रकार वह न्याय को भी व्यक्ति के सापेक्ष ही इसलिए है कि भावना के वशीभूत होकर हम कभी-कभी मानता है। इतने भावुक हो जाते हैं कि अपना कर्तव्य ही भूल जाते हैं। अतः वह भावना को तिलांजलि न देकर बुद्धि नियंत्रित उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि ग्रीक युग भावना को नैतिकता की दृष्टि से उपयोगी मानता है। अतः का महान दार्शनिक अरस्तू जैन अनेकांतवाद से भले ही उसके अनुसार हमें भावना का दास न बनकर भावना का अप्रभावित हो, किंतु उसके सिद्धांत, दर्शन एवं विचार जैन शासक बनना चाहिए। अनेकांतवाद के अधिक निकट हैं। उनका द्रव्य और आकार सिद्धांत अर्थात् उसकी तत्त्व मीमांसा अनेकांत को ही वह नैतिकता के अंतर्गत सद्गुणों की व्याख्या अपने परिपुष्ट करती है। उसका नैतिक दर्शन भी निरपेक्ष नैतिकता ढंग से करता है। वह सुकरात की तरह न ही एक सद्गुण के स्थान पर सापेक्ष नैतिकता को बढ़ावा देता है। सद्गुण मानता है और प्लेटो की तरह न ही चार सद्गुण मानता है। संबंधी मध्यम प्रतिपदा एवं न्याय सिद्धांत भी उसे अनेकांत उसके अनुसार सद्गुण अनंत हैं। वह सद्गुणों में मध्यम प्रतिपक्ष को मानता है। उसके सद्गुण दो अंतों के बीच में के निकट ही खड़ा करते हैं। इस प्रकार यह कहने में कोई निदृष्ट हैं। उदाहरण की दृष्टि से संकोच नहीं होना चाहिए कि अरस्तू का दर्शन अनेकांतवाद के अधिक सन्निकट है। 1. साहस कायरता और उतावलेपन के बीच में है। 2. दानशीलता क्षुद्रता और अपरिष्कृत अपव्यय के बीच में है। 1. ग्रीक थिंकर्स, भाग 4, पृ. 78 2. ए क्रिटिकल हिस्ट्री ऑफ ग्रीक फिलास्फी, पृ. 320 3. सुशीलता उत्साहहीनता और प्रचंडता के मध्य है। 3. 10/247 4. विनम्रता क्रूरता और चापलूसी के मध्य है। 4. अन्ययोग व्यवच्छेदिका, श्लोक 25 5. भद्रता निर्लज्जता और लज्जाशीलता के बीच में है। 5. 3/68 6. आत्मसंयम उदासीनता एवं संयमहीनता के बीच 6. मेटाफिजिक्स, 4/28/1024 में है। 7. 1/2/1356 इसी प्रकार वह समस्त सद्गुणों की व्याख्या करता 8. मेटाफिजिक्स, 4/28/1030 है। यह मध्यम प्रतिपदा भी स्थाई नहीं है। अरस्तू के 9. आऊटलाईन्स आफ फिलास्फी, पृ. 78-79 अनुसार व्यक्ति की प्रतिभा ही समय-समय पर सदगणों के 10. डिमीटरियोलोजिया, 4/3/381 मध्यम मार्ग का निर्धारण करती है। यह मध्यम मार्ग हर 11. ए क्रिटिकल हिस्ट्री ऑफ ग्रीक फिलास्फी, पृ. 268 परिस्थिति एवं देश-काल में एक जैसा नहीं रहता है। 12. ग्रीक दर्शन, पृ. 225 परिवर्तित भी हो सकता है। 13. अरिस्टाटल, पृ. 279 : - स्वर्ण जयंती वर्ष | जैन भारती 90. अनेकांत विशेष । मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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