Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 97
________________ तीजो कहे बीज सेती चौथो कहे हल सेती, के धरातल पर ही संभव है। मेरा चिंतन, कथन और हाळी सेती पांचवों बतावै सो ही छती है। आचरण सही है, इसी प्रकार तुम्हारा चिंतन, कथन और छट्ठो कहे बैल सेती सातवों निषेधे यार, आचरण भी सही हो सकता है। इस अवधारणा में दो खेती भाग सेती ऐसी हिये दरसती है। विपरीत दिशागामी व्यक्ति भी मिल सकते हैं। मिलने की एक बात माने सो ही मिथ्यादृष्टि जीव द्वै, संभावना का आधार एकमात्र सापेक्ष दृष्टिकोण है। सात बात माने सो ही साचो जैन मती है।। जहां सापेक्षता है, वहीं गति है। जहां सापेक्षता है, अनेकांत दर्शन में अस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति, वहीं दही का मंथन होकर नवनीत निकलता है। जहां अवक्तव्य, अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, अस्ति- सापेक्षता है, वहीं प्रकाश है। इस सचाई का अनुभव करने नास्ति अवक्तव्य यह सप्तभंगी वस्तुबोध की न्यूनतम वाला व्यक्ति निरपेक्ष चिंतन, निरपेक्ष भाषण और निरपेक्ष प्रक्रिया है। इसके विस्तार की कोई इयत्ता नहीं है। इस क्रिया की बात सोच ही नहीं सकता। काश! हर मनुष्य आधार पर यह स्वीकार किया जा सकता है कि प्रत्येक वस्तु सापेक्षता का मूल्य समझता और उसे अपने जीवन-व्यवहार अनंतधर्मात्मक होती है। एक समय में एक ही धर्म का में स्थान देता। प्रतिपादन संभव है, इसलिए उसका प्रतिपादन अपेक्षाभेद के परिवार-संस्कृति पर हमला साथ किया जाता है। यह तथ्य भी ज्ञातव्य है कि वस्तु के अनंतधर्मों को स्वीकार करने पर भी उनको अभिव्यक्ति देने एक समय था, जब भारतीय-परिवार-परंपरा बहुत समृद्ध थी। सौ-पचास व्यक्ति एक ही घर में मिल-जुल कर की क्षमता किसी में नहीं है। ऐसी स्थिति में सापेक्षता का रहते थे। वे एक-दूसरे के सुख-दुख में संभागी बनते थे और सिद्धांत ही समाधायक हो सकता है। निश्चिंतता का जीवन जीते थे। बचपन, बुढ़ापा, बीमारी, मूल्य सापेक्षता का विकलांगता आदि विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति असहाय वैचारिक स्वतंत्रता के युग में हर व्यक्ति अपने नहीं रहता था। परिवार के सहारे से कठिनतम परिस्थितियों विचारों को महत्त्व देने की बात सोचता है। किसी के विचारों का भी सहज रूप से निस्तार हो जाता था। परिवार-संस्कृति की थोड़ी-सी उपेक्षा असामंजस्य की स्थिति पैदा कर देती है। पर कब और कैसे हमला हुआ-पता ही नहीं चला। धीरेमैं जो कहता हूं, वही सत्य है—ऐसा आग्रह ज्ञान की धीरे व्यक्ति की मानसिकता में बदलाव आया और वह अपर्णता में कैसे किया जा सकता है? जो परिपर्ण ज्ञानी होते परिवार से कटता गया। एक से दो, दो से नौ और नौ से सौ हैं, उनका कोई आग्रह होता नहीं और जो अपूर्णज्ञानी हैं, परिवारों में वैचारिक प्रदूषण फैला तो विस्फोट-सा हो गया। उनका आग्रह चलता नहीं। इस सचाई को समझ लिया जाए आतंकवादियों द्वारा प्रयुक्त आत्मघाती दस्तों की तो विरोधी विचारों में भी विवाद को कोई अवकाश नहीं तरह परिवार को तोड़ने का प्रयास करने वाले व्यक्ति स्वयं रहता। टूटे और परिवार व्यवस्था की नींव को हिलाने में सफल हो जीवन की दो शैलियां हैं व्यक्तिगत और गए। पारिवारिक टूटन की त्रासदी इस सदी का एक सामूहिक। साधना की भूमिका में जिनकल्प की साधना । भयंकरतम संकट है। इस संकट से पूरा देश प्रभावित हो रहा करने वाला अकेला रहता है। अकेला व्यक्ति अधिक है, फिर भी संयुक्त परिवार की वापसी के कहीं कोई आसार सोचता नहीं है। कोई परिस्थिति उसे सोचने के लिए विवश परिलक्षित नहीं होते। आज की पीढ़ी के लिए कई पीढ़ियों भी करे तो उसकी विचार-यात्रा में कोई व्यवधान नहीं होता। का एक साथ रहना महान आश्चर्य का विषय बन रहा है। इस बात को यों भी प्रस्तुत किया जा सकता है कि वह अब सवाल एक ही है कि संयुक्त परिवार वाली संस्कृति की विरोधी विचारों को भी सह लेता है. क्योंकि सारे विचार चूलें हिलाने वाला शक्तिशाली तत्त्व क्या है? उसके अपने होते हैं। वायरस असहिष्णुता का परिवार और समाज की भूमिका में जीवन-यापन किसी भी समस्या के कारणों का अनुमान तभी करने वाला व्यक्ति कभी निरपेक्ष विचार नहीं कर सकता। लगाया जा सकता है, जब गहरे में उतरकर उस समस्या को यदि वह निरपेक्ष हो जाए तो उसे पग-पग पर समस्याओं का देखा जाए। संयुक्त परिवार-प्रथा पर कहर बरपाने वाला सामना करना पड़ता है। समूह-चेतना का विकास अनेकांत एक छोटा-सा तत्त्व है असहिष्णुता। इस असहिष्णुता का स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती 96. अनेकांत विशेष मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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