Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 31
________________ इसलिए हमें तीसरा विकल्प लेना होगा। इस विकल्प के अनुसार भिन्न-भिन्न अवच्छेदकों के संदर्भ में एक ही पदार्थ में एक साथ सत् असत् नित्य- अनित्य जैसे आपाततः विरोधी धर्म युगपद रह सकते हैं। अवच्छेदक का कभी-कभी अर्थ किया जाता है-सीमा बनाने वाला यहां जैन दर्शन पर नव्यन्याय का प्रभाव स्पष्ट है। इस विकल्प के अनुसार जैन चिंतक कहेंगे कि 'घटत्वेन घटः अस्ति पटत्वेन नास्ति ।' स्पष्ट है कि यह एक तुच्छ शब्दजाल का सहारा लेकर सामान्य व्यक्तियों को समझाकर उनके चिंतन पर आघात पहुंचाने का एक तरीका है जिससे आम आदमी को लगने लगे कि एक पदार्थ वस्तुतः एकसाथ 'पी' और 'नोनपी' धर्मयुक्त होने के बावजूद भी न स्वविरोधी होता है न असत् । इस संदर्भ में कुछ जैन ग्रंथों के प्रसंग नीचे उद्धृत किए जाते हैं (क) अर्पमानयोः विरोधाभावात् । अस्तित्वानस्तित्वयोः (सप्तभंगीतरंगिणी) (ख) सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । (प्रमाणमीमांसा, पू. 26) (ग) स्यात् कथंचित स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया इत्यर्थः । अस्ति हि घटादिकं द्रव्यतः पार्थिवादित्वेन, न जलादित्वेन । क्षेत्रतः पाटलिपुत्रकादित्वेन, न कान्यकुब्जादित्वेन । ( जैनतर्कभाषा, पृ. 22 ) (घ) आपेक्षिक-धर्माणामेकत्र स्थितो विरोधो न्यायदर्शनमते न स्वीक्रियते । (न्यायसिद्धान्तमुक्तावली प्रभाटीका, पृ. 39 - दोशी द्वारा उद्धृत) स्वाभाविक है कि नैयायिक भी, कि जिनका यह मत है कि जैन अनेकांत की इस व्याख्या से प्रसन्न होते हैं। जैसा कि पंडित एस.सी. न्यायाचार्य का कहना है, इस संबंध में गंगेश के वक्तव्य पर मथुरानाथ की टीका उल्लेखनीय है— सांख्य की आपत्ति के विरोध में जैन का कहना है, जो आपत्ति सांख्य की तरफ से स्याद्वाद के विरुद्ध उठाई जाती अवच्छेदक-भेदेन है (कि वो विरोधी विधेयों का एक ही पदार्थ में बतलाना असंगत है), वह आपत्ति स्वयं सांख्य पर भी लागू होती है, क्योंकि वह प्रकृति को तीन परस्पर विरोधी गुणों का समाहार बताता है अथेदं वाच्यं शेयत्वादित्यादी वाच्यत्वाभावो घटः एव प्रसिद्धः । 30 • अनेकांत विशेष Jain Education International इसलिए मथुरानाथ का कहना है कि क्योंकि पट का घटत्व व्यधिकरण धर्म है, अतः 'घटत्वेन पटो नास्ति' कहना शब्दजाल नहीं है, अपितु महत्त्वपूर्ण है। इस दावे के बावजूद इस प्रकार के वक्तव्य की निरर्थकता स्पष्ट है। इस निरर्थकता के अतिरिक्त इस तीसरे विकल्प में एक दूसरी भी समस्या है। स्वयं जैन चिंतक दूसरे दार्शनिकों द्वारा अनेकांत पर लगाए गए आरोपों का उत्तर देते समय जो कहते हैं, उसकी इस तृतीय विकल्प के साथ संगति नहीं बैठती। जैन चिंतकों के अपने उत्तर में यह बात निहित रहती है कि अनेकांत के विरोधी भी चाहे अनजाने में ही अनेकांत का अनुसरण करते हैं। उदाहरणतः न्याय, वैशेषिक और सांख्य को लिया जा सकता है। जैन अपने विरोधियों को जो उत्तर देते हैं उनमें से कुछ उत्तर नीचे दिए जाते हैं— (अ) 'इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्यैर्विरुद्धैर्गुम्फितं गुणैः सांख्य संख्यावतां मुख्यः नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्।' ( वीतरागस्तोत्र -जैन दर्शन दिग्दर्शन, पृ. 6 ) जैनों का कहना है कि वेदांतियों पर भी इसी प्रकार की आपत्ति आती है, क्योंकि वे आत्मा को स्वभावतः मुक्त मानते हुए भी व्यावहारिक स्थिति में उसे बद्ध मानते हैं(आ) 'आबद्धं परमार्थेन, बद्धं च व्यवहारतः ब्रूवाणो ब्रह्मवेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्।' (अध्यात्मोपनिषद्, पृ. 7) स्याद्वाद पर असंगति का आरोप लगाने वाले अन्य दर्शनों की आलोचना का भी इसी प्रकार का उत्तर दिया गया है। वस्तुतः सत्त्व, रज और तमस प्रकृति के घटक तत्त्व हैं न कि केवल सापेक्ष अथवा शब्दजाल द्वारा निर्धारित किए गए धर्म यदि जैन मत का यह दावा ठीक समवायितया हो कि वस्तु में सत् और असत् उसी प्रकार रहते हैं जिस प्रकार प्रकृति में सत्त्व, रज और तमस् रहते हैं तो (जैन दर्शन दिग्दर्शन, पृ. 8 ) महत्त्वहीन शब्दजाल की बात अप्रासंगिक हो जाती है। जैन स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only मार्च मई, 2002 . www.jainelibrary.org

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