Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 83
________________ अंडाकार, कुछ आयताकार, कुछ सूत्र की तरह लंबी, कुछ 'गुणों के जोड़ों' के कतिपय उदाहरण हैं। यह प्रकृति का बेलनाकार, कुछ शंखाकार तथा कुछ चपटी होती हैं। कुछ चमत्कार और अनेकांत का अनुपम उदाहरण ही तो है कि कोशिकाओं से रोम निकले होते हैं जबकि कुछ कोशिकाओं हजारों गुणों के एक साथ रहते हुए भी कभी अंतर्गुणीय संघर्ष का आकार अव्यवस्थित और अस्तव्यस्त होता है। यही नहीं होता। जहां-कहीं भी एक गुण होगा उसका विरोधी नहीं, कोशिकाओं की अवस्थिति में भी बहुत-सारी उसके साथ होगा, परंतु जब एक सक्रिय होगा तो दूसरा विविधताएं होती हैं। कोशिकाओं का आकार कुछ निष्क्रिय-जिसके कारण स्वतः ही सामंजस्य स्थापित हो माईक्रोमीटर से लेकर मिलीमीटर व्यास या परिमाप का होता जाता है। है। यह तो हुई बात इनके आकार-प्रकार की। अब इनकी शरीर के ऊतकीय स्तर में एक समान कोशिकाएं संरचना की ओर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि वहां भी अलग- अपने-अपने व्यक्तिगत गुणों के साथ एक साथ सहवास अलग प्रकार की विशिष्टताओं की भरमार है। किसी एक करते हुए एक विशेष प्रकार की रचना बनाती हैं। जब कोमल कोशिका की मूल संरचना में सबसे बाहरी आवरण होता है कोशिकाएं मिलती हैं तो मद् ऊतक बनता है और जब कड़ी जो झिल्ली के आकार का होता है जिसे कोशिका भित्ति कहते कोशिकाएं (ऐसी कोशिकाएं जिनकी भित्ति अपेक्षाकत हैं। उसके अंदर गाढ़ा तरल पदार्थ होता है जिसे जीवद्रव्य अधिक कठोर और मजबूत होती है) मिलती हैं तो कठोर कहते हैं। जीवद्रव्य के केंद्र में एक छोटी-सी गोल रचना होती ऊतक बनता है। आवश्यकतानुसार मृदु और कठोर ऊतक है जिसे केंद्रक कहते हैं। कोशिका भित्ति के निर्माण हेतु वसा एक साथ भी सहवास करते हैं तो अतिविशिष्ट प्रकार के और प्रोटीन तथा फास्फेट नामक तीन विपरीत गुण-धर्म वाले ऊतकों का निर्माण होता है। अलग प्रकार की विशेषता एवं रासायनिक पदार्थ मिलते हैं जो कोशिका को दृढ़ रूप देते हैं। विपरीत गुण-धर्म के बाद भी दो भिन्न ऊतक एक-दूसरे का यह भित्ति अनेक अति सूक्ष्म छिद्रों वाली होती है। इन छिद्रों आदर करते हैं, पोषण करते हैं तथा एक-दूसरे की सुरक्षा भी पर रासायनिक यौगिक ही सुरक्षा प्रहरी का कार्य करते हैं जो करते हैं, यही नहीं एक-दूसरे की तकलीफों में भागीदार भी चुने हुए पदार्थों को कोशिका के अंदर आने-जाने की अनुमति बनते हैं। जब किसी एक ऊतक में घाव हो जाता है या कोई देते हैं। प्रकृति की कितनी चामत्कारिक विशेषता और विकृति आ जाती है तो दूसरा ऊतक, जो उसके पास भी हो जटिलता है कि अनेकानेक पदार्थों के आस-पास भ्रमण के सकता है और दूर भी हो सकता है—निःस्वार्थ भाव से बाद भी वहां कोई रासायनिक संघर्ष नहीं होता, सब-कुछ उसकी रोगमुक्ति का कारण बनता है। यह है सह-अस्तित्व सहजता से होता चला जाता है। जीवद्रव्य गाढ़ा तरल पदार्थ एवं अनेकांत का सच्चा दृष्टांत।। होते हुए भी अपने अंदर भांति-भांति के कोशिका उपांगों को शरीर की रचना के क्रम में ऊतकों के बाद अगली समाहित किए होता है। इनमें माइटोकान्ड्रिया, सीढ़ी अंगीय स्तर की होती है। जब भिन्न-भिन्न प्रकार के एन्डोप्लामिक रेटिकुलम, गाल्जीकाम, लाइसोसोम आदि अंग एक साथ मिलते हैं तो विशेष कार्य के लिए विशेष रचना प्रमुख हैं। इनमें से कोई श्वसन का काम करता है, कोई खाना बनती है, जिसे अंग कहा जाता है। नाक, आंख, कान, दांत, खाने-पचाने का काम करता है तो कोई उत्सर्जन का। कोई जीभ, अंगुली, हाथ, पैर, हृदय, यकृत, फेफड़े अंगों के भी उपांग एक-दूसरे के कामों में हस्तक्षेप नहीं करते, बल्कि कतिपय उदाहरण हैं। एक 'अंगुली' की रचना को देखें तो एक-दूसरे को सहयोग ही करते हैं। अनेकांत का इससे इसकी व्यवस्था में अनेक ऊतक शामिल हैं। कठोर तथा बेहतर उदाहरण अन्यत्र कहां मिल सकता है। जीवद्रव्य के निश्चित आकार वाली अस्थि, रक्तवाहिकाएं, तंत्रिका अंदर पाया जाने वाला केंद्रक कोशिका का या यों कहें कि शाखाएं, रक्त, पेशियां और त्वचा मिलकर इसका निर्माण जीवन का तिलिस्मी खजाना है। इसके अंदर पत्ती के आकार करती हैं। इन सभी ऊतकों की प्रकृति सर्वथा भिन्न है, फिर के गुणसूत्र होते हैं जिन्हें सामान्यतया क्रोमोसोम कहा जाता भी जब अंगुली की बात आती है तो सभी की एकजुटता या है। इनके ऊपर डी.एन.ए. के बने हुए 'जीन' होते हैं। मानव इनके बीच अनैकांतिक समावेश स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। जाति के जितने भी संभावित गुण होते हैं उनमें से हर एक के शरीर की रचना के स्तरों में अंतिम है तंत्रीय लिए अलग-अलग 'जीन' होते हैं। कालापन-गोरापन, व्यवस्था। कोशिका से लेकर अंगों तक की जितनी रचना लंबाई-ठिगनापन, मंदबुद्धि-तीव्रबुद्धि, क्रोधी-शांत आदि बनती है वह सोद्देश्य होती है। हर अंग का योगदान एक ETHER E 82. अनेकांत विशेष स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती | मार्च-मई, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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