Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 74
________________ के कारण बनते हैं। इसमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और सुविधाओं में वृद्धि की, किंतु उसके परिणामस्वरूप आज स्थिति को समझने का प्रयास नहीं किया जाता, मानव जाति उपभोक्तावादी संस्कृति से ग्रसित हो गई है तब तक संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। वस्तुतः इसके मूल और इच्छाओं और आकांक्षाओं की दृष्टि के साथ चाहे में जो दृष्टिभेद है, उसे अनेकांत पद्धति से सम्यक् प्रकार भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन बढ़े भी हों, किंतु उसने से जाना जा सकता है। मनुष्य की अंतरात्मा को विपन्न बना दिया। आकांक्षाओं वास्तविकता यह है कि हम जब दूसरे के संबंध में की पूर्ति की दौड़ में मानव अपनी आंतरिक शांति खो का पूति का दा कोई विचार करें, कोई निर्णय लें तो स्वयं अपने को उस बैठा। फलतः आज हमारा आर्थिक क्षेत्र विफल होता स्थिति में खड़ा कर सोचना चाहिए। दूसरे की भूमिका में दिखाई दे रहा है। वस्तुतः इस सबके पीछे आर्थिक प्रगति स्वयं को खड़ा करके ही उसे सम्यक् प्रकार से जाना जा को ही एकमात्र लक्ष्य बना लेने की ऐकांतिक जीवन सकता है। पिता पुत्र से जिस बात की अपेक्षा करता है * दृष्टि है। ! उसके पहले अपने को पुत्र की भूमिका में खड़ा कर विचार कर ले। अधिकारी कर्मचारी से किस ढंग से काम लेना धर्मतंत्र, बिना अनेकांत दृष्टि को स्वीकार किए सफल नहीं चाहता है, उसके पहले स्वयं को उस स्थिति में खड़ा करे. हो सकता, क्योंकि इन सबका मूल केंद्र तो मनुष्य ही है। फिर निर्णय ले। यही एक ऐसी दृष्टि है, जिसके अभाव में जब तक वे मानव-व्यक्तित्व की बहुआयामिता और उसमें लोक-व्यवहार असंभव है और इसी आधार पर अनेकांतवाद निहित सामान्यताओं को नहीं स्वीकार करेंगे, तब तक इन जगद्गुरु होने का दावा करता है। क्षेत्रों में हमारी सफलताएं भी अंततः विफलताओं में ही बदलती रहेंगी। वस्तुतः अनेकांत दृष्टि ही एक ऐसी दृष्टि है अर्थशास्त्र और अनेकांत जो मानव के समग्र कल्याण की दिशा में हमें अग्रसर कर सामान्यतया अर्थशास्त्र का उद्देश्य जन-सामान्य का सकती है। समग्रता की दिशा में अंगों की उपेक्षा नहीं, आर्थिक कल्याण होता है, किंतु आर्थिक प्रगति के पीछे अपितु उनका पारस्परिक सामंजस्य ही महत्त्वपूर्ण होता है मूलतः वैयक्तिक हितों की प्रेरणा ही कार्य करती है। यही और अनेकांतवाद का यह सिद्धांत इसी व्यावहारिक जीवन कारण है कि अर्थशास्त्र के क्षेत्र में पूंजीवादी और साम्यवादी दृष्टि को समुपस्थित करता है। दृष्टियों के केंद्र बिंदु ही भिन्न-भिन्न बन गए। साम्यवादी शक्तियों का आर्थिक क्षेत्र में पिछड़ने का एकमात्र कारण यह अनकात का जान का आव अनेकांत को जीने की आवश्यकता रहा कि उन्होंने आर्थिक प्रगति के लिए वैयक्तिक प्रेरणा की अनेकांतवाद के सैद्धांतिक पक्ष पर तो प्राचीन काल उपेक्षा की, किंतु दूसरी ओर यह भी हुआ कि वैयक्तिक से लेकर अब तक बहुत विचार-विमर्श या आलोचनआर्थिक प्रेरणा और वैयक्तिक अर्थलाभ को प्रमखता देने के प्रत्यालोचन हुआ, किंतु उसका व्यावहारिक पक्ष उपेक्षित ही कारण सामाजिक कल्याण की आर्थिक दृष्टि असफल हो रहा। अनेकांतवाद मात्र सैद्धांतिक चर्चा का विषय नहीं है, गई और उपभोक्तावाद इतना प्रबल हो गया कि उसने वह प्रयोग में लाने का विषय है, क्योंकि इस प्रयोगात्मकता सामाजिक-आर्थिक कल्याण की पूर्णतः उपेक्षा कर दी। के द्वारा ही हम वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के संघर्षों परिणामस्वरूप अमीर और गरीब के बीच खाई अधिक एवं वैचारिक विवादों का निराकरण कर सकते हैं। गहरी होती गई। अनेकांतवाद को मात्र जान लेना या समझ लेना ही पर्याप्त ___ इसी प्रकार अर्थशास्त्र के क्षेत्र में आर्थिक प्रगति का नहीं है, उसे व्यावहारिक जीवन में जीना भी होगा और तभी भाधार निी साों पाया और उसकी वास्तविक मूल्यवत्ता को समझ सकेंगे। आवश्यकताओं को बढ़ाना मान लिया गया। किंतु इसका हम देखते हैं कि अनेकांत एवं स्याद्वाद के सिद्धांत परिणाम यह हुआ कि अर्थशास्त्र के क्षेत्र में स्वार्थपरता दार्शनिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं पारिवारिक और शोषण की दृष्टि ही प्रमुख हो गई। आवश्यकताओं जीवन के विरोधों के समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि की सृष्टि और इच्छाओं की पूर्ति को ही आर्थिक प्रगति प्रस्तुत करते हैं जिससे मानव-जाति को संघर्षों के का प्रेरक तत्त्व मानकर हमने आर्थिक साधन और निराकरण में सहायता मिल सकती है। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.73 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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