Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 46
________________ सच हो तो झूठ नहीं होती है और अगर झूठ होती है तो सच बात उतनी सच नहीं लगती, लेकिन अगर 'नहीं' होने को, नहीं। अनेकांत के दावेदार आमतौर पर इस मान्यता का होने के संदर्भ में देखें तो शायद वह उतनी गलत नहीं खंडन करते प्रतीत होते हैं और ऐसा कहने की कोशिश करते लगेगी। हैं कि किसी भी बात के बारे में यह कहना कि वह 'सच' है पर क्या सब चीजें या ज्ञान के सब विषय अनिवार्य या 'झूठ' है----एकांगी है। क्योंकि अगर हम ध्यान से देखें रूप से देश और काल में स्थित होते हैं। 'विषय' होने का तो वही बात सच भी दिखेगी और झूठ भी। लेकिन स्वयं अर्थ यह नहीं होता कि वह देश या काल में हो। देश या अनेकांत को मानने वाले इस बात को स्वीकार करने से काल में होना उसका आगंतुक गुण है, अनिवार्य गुण नहीं। कतराएंगे कि अगर उनकी यह बात ठीक है तो उनकी बात दूसरी ओर, ज्ञान के लिए देश और काल में स्थित विषय का भी न तो सच कही जा सकती है, न झूठ और न दोनों ही। - इस प्रकार वर्णन किया जा सकता है कि उसकी उनमें स्थिति अपनी बात को तो वे पूर्णतः सच मानकर ही बात करते हैं इस प्रकार बताई जा सके कि वे उनके गुणों का रूप ले लें। और इस अंतर्विरोध को देखने से इनकार करते हैं। कौन चीज कहां है और कब है, यह बताना मुश्किल बात यह बात एक तरह से उन सब बातों पर लागू होती है नहीं है, हालांकि विज्ञान की प्रगति ने इन दोनों के बारे में जो जो 'सब बातों के बारे में बात करती हैं। लेकिन, ऐसा समस्याएं और शंकाएं उठाई हैं, उनसे अब यह बात कम से जरूरी नहीं है, क्योंकि जो लोग सच और झूठ के बारे में कम उतनी स्पष्ट नहीं है, जितनी पहले थी। फिर भी किसी अनेकांत के सिद्धांत को नहीं अपनाते उनके लिए इस प्रकार चीज की देश-काल में स्थिति बताना और इस तरह से की समस्या नहीं उठेगी। उसकी सत्यता-असत्यता का उसके ज्ञान के संदर्भ में परंतु अगर हम ज्ञान की बात निर्धारण करना कठिन नहीं है। को छोड़कर ज्ञान के विषय की बात यही नहीं, अगर 'वस्तु' को कालकरें और ज्ञान के स्वरूप को उसके भाव-जगत के संदर्भ में अनैकांतिकता क्रम में 'घटना-प्रवाह' के रूप में विषय के रूप से अनिवार्य रूप से की बात की ही नहीं गई है, लेकिन देखें तब भी उसे ज्ञान में आबद्ध संबंधित देखें तो शायद अनेकांत की जानी चाहिए। इसके संदर्भ में किया जा सकता है। भविष्य को का सिद्धांत जो बात कहने की अनैकांतिकता का अर्थ क्या होगा, हम उसी प्रकार ज्ञान-प्रक्रिया में चेष्टा करता है वह अधिक समझ में यह स्पष्ट नहीं है। लेकिन, अगर हम पकड़ सकते हैं, जिस प्रकार कलाकृतियों को भाव-जगत के आए। साधारणतः ज्ञान का विषय वर्तमान को। यही नहीं, कार्यचित्रण के रूप में देखें तो इतना तो देश और काल में स्थित होता है कारण के नियम के द्वारा भविष्य स्पष्ट ही होगा कि इनमें परस्पर और जो काल में है उसमें परिवर्तन में होने वाली घटनाएं वर्तमान में अंतर्विरोध से ग्रसित भावनाओं को होना स्वाभाविक है। परंतु 'ज्ञान' जो है, उससे इस प्रकार संबंधित एक साथ सामंजस्य में लाने की सदैव तो यह कहता है कि 'ऐसा है' या चेष्टा होती है। यहां साधारणतः वे देखी और दिखाई जा सकती हैं, 'ऐसा नहीं है, और इस 'कहने' का एक-दूसरे की विरोधी न होकर, एक जैसे वो वर्तमान में ही हों। इस काल की सतत परिवर्तनशीलता से दूसरे की पूरक के रूप में अनुभूत प्रकार ज्ञान काल में दिखने वाली कोई संबंध दिखाई नहीं देता। यही होती हैं। चाहे काव्य हो या नाट्य, निरंतर परिवर्तनशीलता को नहीं, वह तो उस सतत चित्र हो या नृत्य, वास्तु हो या नकारता भी है और उसे इस परिवर्तनशीलता को नकारता संगीत, सबमें सदैव यह सत्य प्रकार का 'स्थायित्व' भी प्रदान दिखाई देता है। उसके लिए तो दृष्टिगोचर होता है। इसको करता है जैसे वह केवल आभासऐसा लगता है-सब-कुछ चिरंतन 'अनैकांतिक' कहें या ना कहें, यह मात्र हो, सत् नहीं। ज्ञान को है, स्थिर है, कहीं कोई बदलाव की अलग बात है। इसीलिए 'कालातीत' कहा गया गुंजाइश ही नहीं है। जो 'है' सो है, है, अर्थात् उसका काल से कोई जो 'नहीं' है वह नहीं है। पर अगर संबंध नहीं है। काल सत्य है, तो जो 'है', उसका 'नहीं' होना अवश्यंभावी दूसरी ओर, ज्ञान के उन विषयों के बारे में, जिनका है; और इसी प्रकार शायद जो 'नहीं है' उसका 'होना'। दूसरी 'देश-काल' से कोई संबंध नहीं है, उस प्रकार से अनेकांतता स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष .45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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