Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 70
________________ धर्म का आवरण डालकर मानव की महत्त्वाकांक्षा, उसका कारण नहीं है। बौद्धिक भिन्नता और देश-कालगत तथ्य भी अहंकार ही यह सब करवाता रहा है। यह धर्म नहीं, धर्म इसके कारण रहे हैं और इसके अतिरिक्त पूर्व प्रचलित का नकाब डाले अधर्म है। परंपराओं में आई हुई विकृतियों के संशोधन के लिए भी मूल प्रश्न यह है कि क्या धर्म अनेक हैं या हो सकते संप्रदाय बने। उनके अनुसार संप्रदाय बनने के निम्न कारण हैं? इस प्रश्न का उत्तर अनैकांतिक शैली से यह होगा कि हो सकत है : धर्म एक भी है और अनेक भी। साध्यात्मक धर्म या धर्मों का (1) ईर्ष्या के कारण (2) किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि साध्य एक है जबकि साधनात्मक धर्म अनेक हैं। साध्य रूप की लिप्सा के कारण (3) किसी वैचारिक मतभेद (मताग्रह) में धर्मों की एकता और साधन रूप से अनेकता को ही के कारण (4) किसी आचार संबंधी नियमोपनियम में भेद यथार्थ दृष्टिकोण कहा जा सकता है। सभी धर्मों का साध्य के कारण (5) किसी व्यक्ति या पूर्व संप्रदाय द्वारा अपमान है–समत्वलाभ (समाधि) अर्थात् आंतरिक तथा बाह्य या खींचतान होने के कारण (6) किसी विशेष सत्य को शांति की स्थापना तथा उसके लिए विक्षोभ के जनक राग- प्राप्त करने की दृष्टि से और (7) किसी सांप्रदायिक परंपरा द्वेष और अस्मिता (अहंकार) का निराकरण। लेकिन राग- या क्रिया में द्रव्य, क्षेत्र एवं काल के अनुसार संशोधन या द्वेष और अस्मिता के निराकरण के उपाय क्या हों? यहीं परिवर्तन करने की दृष्टि से। उपरोक्त कारणों में अंतिम दो विचार-भेद प्रारंभ होता है. लेकिन यह विचार-भेद विरोध को छोड़कर शेष सभी कारणों से उत्पन्न संप्रदाय आग्रह, का आधार नहीं बन सकता। एक ही साध्य की ओर उन्मख धार्मिक असहिष्णुता और सांप्रदायिक विद्वेष को जन्म होने से वे परस्पर विरोधी नहीं कहे जा सकते। एक ही केंद्र देते हैं। से आयोजित होने वाली परिधि से खिंची हुई विभिन्न विश्व इतिहास के अध्येता इसे भलीभांति जानते हैं रेखाओं में पारस्परिक विरोध प्रतीत अवश्य होता है, किंतु कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराए। वह यथार्थ में होता नहीं है। क्योंकि केंद्र से संयुक्त प्रत्येक आश्चर्य तो यह है कि इस दमन, अत्याचार, नृशंसता और रेखा में एक-दूसरे को काटने की क्षमता नहीं होती है, किंतु रक्तप्लावन को धर्म का बाना पहनाया गया। शांतिप्रदाता जैसे ही वह केंद्र का परित्याग करती है वह दूसरी रेखाओं धर्म ही अशांति का कारण बना। आज के वैज्ञानिक युग में को अवश्य ही काटती है। साध्य सभी एकता में साधनरूपी धार्मिक अनास्था का मुख्य कारण उपरोक्त भी है। यद्यपि धर्मों की अनेकता स्थित है। अतः यदि धर्मों का साध्य एक विभिन्न मतों, पंथों और वादों में बाह्य भिन्नता परिलक्षित है तो उनमें विरोध कैसा? अनेकांत, धर्मों की साध्यपरक होती है, किंतु यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो मूलभूत एकता और साधनपरक अनेकता को इंगित उसमें भी एकता और समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो करता है। सकते हैं। विश्व के विभिन्न धर्माचार्यों ने अपने युग की अनेकांत विचार-दृष्टि विभिन्न धर्म-संप्रदायों की तात्कालिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने सिद्धांतों समाप्ति द्वारा एकता का प्रयास नहीं करती है। क्योंकि एवं साधनों के बाह्य नियमों का प्रतिपादन किया। देश- वैयक्तिक रुचि-भेद एवं क्षमता-भेद तथा देश-कालगत कालगत परिस्थितियों और साधकों की साधना की क्षमता भिन्नताओं के होते हुए विभिन्न धर्मों एवं संप्रदायों की की विभिन्नता के कारण धर्म-साधना के बाह्य रूपों में उपस्थिति अपरिहार्य है। एक धर्म या एक संप्रदाय का नारा भिन्नताओं का आ जाना स्वाभाविक ही था और ऐसा हुआ असंगत एवं अव्यावहारिक ही नहीं, अपितु अशांति और भी। किंतु मनुष्य की अपने धर्माचार्य के प्रति ममता संघर्ष का कारण भी है। अनेकांत विभिन्न धर्म-संप्रदायों की (रागात्मकता) और उसके अपने मन में व्याप्त आग्रह और समाप्ति का प्रयास न होकर उन्हें एक व्यापक पूर्णता में अहंकार ने उसे अपने धर्म या साधना पद्धति को ही एकमात्र सुसंगत रूप से संयोजित करने का प्रयास हो सकता है। एवं अंतिम सत्य मानने को बाध्य किया। फलस्वरूप लेकिन इसके लिए प्राथमिक आवश्यकता है धार्मिक विभिन्न धार्मिक संप्रदायों और उनके बीच सांप्रदायिक सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव की। वैमनस्य प्रारंभ हुआ। यद्यपि वैयक्तिक अहं धर्म-संप्रदायों अनेकांत के समर्थक जैनाचार्यों ने इसी धार्मिक के निर्माण का एक कारण अवश्य है, लेकिन वही एकमात्र सहिष्णता का परिचय दिया है। आचार्य हरिभद्र की धार्मिक स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.69 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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