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ग्राही नय उत्पत्ति के लिए भूमिका प्रस्तुत करता है। जैसे इस तरह नयवाद वस्तु के गुण, स्वरूप एवं विविध छोटे-बड़े पात्रों के अनुसार ही जल भरा जाता है, उसी पर्यायों का यथार्थ विवेचन है, जो पूर्ण सत्य को प्राप्त करने प्रकार प्रमाण के धरातल पर नय अनेक रूपों में और वेशों में में महत्त्वपूर्ण योग देता है, क्योंकि नय का आविष्कार वस्तु अपना अस्तित्व प्रदर्शित करता है। अतः नय प्रमाण रूप के यथार्थ स्वरूप को अवगत करने के लिए ही किया गया सागर का वह अंश है, जिसे ज्ञाता ने अपने अभिप्राय के पात्र है। अपनी दृष्टि तक सीमित रहते हुए भी दूसरों की दृष्टि में भर लिया है। अलग-अलग दृष्टिकोणों या भंगों को पर प्रहार न करना ही नय का मूल लक्ष्य है। आंशिक सत्य स्वीकार कर उनमें सामंजस्य स्थापित करते
वस्तुतः श्रुत के दो कार्य हैं—स्याद्वाद और नय। हुए पूर्ण सत्य की ओर अग्रसर होना नयवाद का लक्ष्य है।
संपूर्ण वस्तु के कथन को स्याद्वाद और वस्तु के एकदेश के नय का विषय एकांत है, किंतु एकांतों के समूह का कथन को 'नय' कहते हैं। आ. समन्तभद्र ने कहा है कि नाम ही तो अनेकांत है। अतः जो वस्तु प्रमाण की दृष्टि में
स्याद्वाद के द्वारा गृहीत अनेकांतात्मक पदार्थ के धर्मों का अनेकांत रूप है, वही वस्तु नय की दृष्टि में एकांत स्वरूप
अलग-अलग कथन करने वाला नय है। अतः प्रमाण के है। जैसे एक के बिना अनेक नहीं, वैसे ही एकांत के बिना
द्वारा अनेकांत का बोध होता है और नय के द्वारा एकांत का अनेकांत नहीं। कहा भी है
बोध होता है। किंतु नय तभी सुनय है जब वह सापेक्ष हो। अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः ।
यदि वह अन्य नयों के द्वारा गृहीत अन्य धर्मों का निराकरण अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात्।।
करता है तो वह दुर्नय हो जाता है। अतः सापेक्ष नयों के (बृहत्स्वयभू स्तात्र 103) द्वारा गहीत एकांतों के समह का नाम ही अनेकांत है और अर्थात् प्रमाण और नय के द्वारा अनेकांत भी अनेकांत अनेकांत का ग्राहक या प्रतिपादन स्याद्वाद है। अतः स्याद्वाद रूप है। प्रमाण की अपेक्षा अनेकांत है और विवक्षित नय की को समझने के लिए नय को समझना आवश्यक है और नय अपेक्षा एकांत है। अतः नय के बिना अनेकांत संभव नहीं है। के द्वारा ही एकांत का निरास संभव है। क्योंकि यद्यपि नय अकलंकदेव के अनुसार सम्यक् एकांत नय कहलाता है और एकांत का ग्राहक है, किंतु वह एकांत भी तभी 'सम्यक् सम्यक् अनेकांत प्रमाण। नय विवक्षा वस्तु के एक धर्म का एकांत' कहा जाता है जब वह अन्य एकांतों का निराकरण निश्चय कराने वाली होने से एकांत है और प्रमाण विवक्षा नहीं करता। अतः अन्य सापेक्ष एकांत ही सम्यक् एकांत हैं। वस्तु के अनेक धर्मों की निश्चय स्वरूप होने के कारण यद्यपि जैन दर्शन सम्यक एकांत का विरोधी नहीं है, किंतु अनेकांत है।
मिथ्या एकांत का विरोधी है। इस प्रकार के एकांतों के अस्तित्व आदि जितने वस्तु के निज स्वभाव हैं उन समन्वय के लिए नय का ज्ञान आवश्यक है। नय का ज्ञाता सबको अथवा विरोधी धर्मों को युगपत् ग्रहण करने वाला यह जानता है कि वस्तु को जानने के बाद ज्ञाता अपने प्रमाण है। प्रमाण वस्तु को सब दृष्टि बिंदुओं से जानता है। अभिप्राय के अनुसार उसका कथन करता है, अतः उसका इसीलिए वस्तु के समस्त अंशों को जानने वाला प्रमाण होता कथन उतने ही अंश में सत्य है, सर्वांश में नहीं। दूसरा ज्ञाता है। और उन्हें गौण-मुख्य भाव से ग्रहण करने वाला नय है। उसी वस्तु को अपने अभिप्राय के अनुसार भिन्न रूप से अर्थात् प्रमाण द्वारा ज्ञात अनंत धर्मात्मक वस्तु के किसी एक कहता है। उनके पारस्परिक विरोध को नय दृष्टि से ही दूर अंश अथवा गुण को मुख्य करके जानने वाले ज्ञान को नय किया जा सकता है। अतः वस्तु के यथार्थ स्वरूप को कहते हैं। नय-ज्ञान में वस्तु के अन्य अंश की ओर उपेक्षा समझने के साथ उसके संबंध में विभिन्न कलाओं के या गौणता रहती है।
विभिन्न अभिप्रायों को समझने के लिए नय को जानना नय तथा प्रमाण के उपर्युक्त स्वरूप-विवेचन से इन चाहिए। दोनों का अंतर भी स्पष्ट हो जाता है। षट्खंडागम की मूलतः नय के दो रूप हैं सम्यक् नय अर्थात् सुनय धवला टीका में कहा भी है कि प्रमाण नय नहीं है क्योंकि एवं मिथ्या नय अर्थात् दुर्नय। सुनय सापेक्ष होता है, पर प्रमाण का विषय अनेकांत (अनेक धर्मात्मक वस्तु) है और दुर्नय अन्य निरपेक्ष होकर अन्य का निराकरण करता है। जो न नय प्रमाण है क्योंकि नय का विषय एकांत अर्थात् अनंत नय अनेकांतात्मक वस्तु के किसी धर्मविशेष को सापेक्षिक धर्मात्मक वस्तु का एक अंश (धर्म) है।
रूप से ग्रहण करता है वह सुनय है तथा जो नय दूसरे धर्मों
BHILASHIARRIA
स्वर्ण जयंती वर्ष
76. अनेकांत विशेष
जैन भारती
मार्च-मई, 2002
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