Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 38
________________ न भवति....प्रत्यक्षादिना प्रमाणेन अनंतधर्मात्मकस्येव माने जाएंगे? ये रोचक प्रश्न हैं और जैन दार्शनिकों ने इनका सकलस्य प्रतीतेः-षड्दर्शनसमुच्चय, पृ. 212) अपने ढंग से उत्तर देने का प्रयत्न किया है। परस्पर मतभेद इस प्रकार संशय की परिभाषा का जो अंतिम होने के बावजूद ऐसा लगता है कि जैन इस संबंध में यह वाक्यांश अर्थात् (-Esxa & -EsYa) है वह स्याद्वाद के कहना चाहते हैं कि नैतिक आदेशों के संबंध में वक्ता सापेक्ष वक्तव्य पर लागू नहीं होता, इसलिए स्यावाद के (अधिकृत व्यक्ति) का अभिप्राय ही विचारणीय बिंद है। परंपरागत विरोधी आलोचकों की आपत्ति के बावजूद न अतः नैतिक निर्णय और आदेशों का समाज द्वारा स्वीकृत स्याद्वाद संशयवाद है और न स्याद्वाद का नतीजा होने के कारण न उल्लंघन किया जा सकता है, न परिवर्तन संशयवाद है। और न उनकी कोई दूसरी व्याख्या संभव है। अतः एक प्रकार से ऐसे आदर्श अलंघनीय हैं। इसी प्रकार विरोध की अवधारणा का भी जैन दृष्टि से ऐसा लक्षण दिया जा सकता है कि यह कहा जा सके कि. स्याद्वाद और अनेकांतवाद के संदर्भ में और भी दूसरे स्याद्वाद और अनेकांतवाद संपूर्णतया सापेक्ष दृष्टि होने के अत्यंत रुचिकर दार्शनिक बिंदु हैं, किंतु थोड़े में अधिक ट्रंस बावजूद भी ऐसे वाक्यों को सत्य नहीं मानते कि 'वन्ध्यापुत्रः देने का प्रलोभन मुझे आकृष्ट कर ले, इस आशंका से मैं धनुर्धरः'। इस विषय में विस्तार से जाने के लिए हमें बिना विस्तार में गए केवल कुछ बिंदुओं का उल्लेख मात्र परस्पर संबद्ध ऐसी अवधारणाओं को स्पष्ट करना होगा कर रहा हूंजैसे कि 'असंगत धर्म', 'विरुद्ध धर्म', 'परस्पर विरोधी 1. क्या स्याद्वाद से युक्त वक्तव्य ही सापेक्ष रूप से वचन', 'रूढ़ विरोधी वचन', 'रूढ़स्वविरोधीवचन' इत्यादि। सत्य होता है? अब हम तीसरे प्रश्न को लें। जैनों का कहना है कि 2. क्या अनेकांतवाद एकांततः सत्य है अथवा नहीं? विरोधियों के दार्शनिक सिद्धांत वस्तुतः उनकी दृष्टि के 3. जैन विद्या की विचार-सरणि में वस्तुनिष्ठ सत्य का विरुद्ध नहीं हैं। तब प्रश्न यह होता है कि अजैनों के साथ वस्तुवादी विचार किस प्रकार समझा जाए? जैन दार्शनिकों का विवाद करना किस प्रकार सार्थक है? 4. जैनों का भाषा-दर्शन—विशेषकर उनके वाक्यों के किंतु जैन ऐसे शास्त्रार्थ विवाद करते हैं। इससे क्या समझा वर्गीकरण की योजना और विभज्यवाद का सिद्धांत जाए? एक सरल-सा उत्तर यह है कि जैन और उनके उपर्युक्त दार्शनिक सिद्धांतों से किस प्रकार संबद्ध है? विरोधियों के बीच वस्तुस्वरूप की दृष्टि से सचमुच कोई 5. जैनों के इस कथन कि 'ज्ञान को उत्पन्न करने वाली महत्त्वपूर्ण दार्शनिक मतभेद नहीं है। वास्तविक मतभेद इस कुछ प्रक्रियाएं न प्रमाण हैं न अप्रमाण हैं, प्रमाणात्विक दृष्टि का है कि हम एकांत दृष्टि को अपनाएं या अनेकांत तथा दर्शनशास्त्रीय क्या महत्त्व है? (तुलनीय : नया दृष्टि को? अतः वस्तुतः विवाद परास्तरीय (Meta अपि न प्रमाणं न वा अप्रमाणं-जैन तर्क भाषा, Level) है। यह लगभग उसी प्रकार है जिस अर्थ में मोरिस पृ. 21; अपि च नाप्रमाणं प्रमाणं वा नया ज्ञानात्मकाः लेजरोविट्ज के अनुसार ब्रेडले ने जगत की यथार्थता का मताः तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक)। निषेध किया है। वह अर्थ उससे भिन्न है जिस अर्थ में इस निबंध के लिखने में मेरा उद्देश्य यह है कि मैं सामान्य व्यक्ति यथार्थता को समझता है। ऐसा न समझा स्याद्वाद और अनेकांतवाद के संबंध में अपने कुछ विचार जाए कि मैं नई व्याख्या देने के नाम पर अनुचित लाभ उठा यह प्रदर्शित करने के लिए रखू कि जैन दर्शन में ऐसी रहा हूं और जैनों के ऊपर कोई अति-आधुनिक विचार थोप मूल्यवान् अंतर्दृष्टियां हैं जिनको आज के संदर्भ में पुनः रहा हूं। क्योंकि द्वादशारनयचक्र में मल्लवादी ने मेरी ही विश्लेषित और पुनः व्याख्यायित करने की आवश्यकता है। दृष्टि का अनुसरण किया है। मैं अपने श्रम को सार्थक मानूंगा, यदि यह निबंध अधिक हम वापस स्याद्वाद पर जाएं। यदि सभी वक्तव्य जैन समर्थ विद्वानों को जैन दर्शन पर गंभीर विचार करने के लिए के अनुसार सापेक्ष हैं तो फिर 'चोरी पाप है' अथवा 'झूठ प्रेरित करे और मेरा अहोभाग्य होगा कि इस प्रक्रिया के नहीं बोलना चाहिए' जैसे नैतिक निर्णय अथवा नैतिक चलते मेरे इस निबंध पर समीक्षात्मक शैक्षणिक प्रतिक्रिया आदेश निरपेक्ष रूप में सत्य कैसे होंगे अथवा सार्वभौम कैसे भी मुझे प्राप्त हो। स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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