Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ नहीं कर पा रहे।' मतिलाल का कहना है कि बौद्ध चतुष्कोटि प्रस्तुत चार विकल्पों में से किसी का भी निषेध नहीं करता। को असंगत होने से बचा सकते हैं यदि 'वे अप्रतिबद्धता इस प्रकार माध्यमिक और जैन के बीच का अंतर स्पष्ट हो रखते हुए किसी भी दार्शनिक पक्ष को स्वीकार न करें' जाता है और उसके लिए प्रसज्य-प्रतिषेध के संबंध में जैनों अर्थात् जब तक कि वे प्रसज्य-प्रतिषेधीय तर्कशास्त्र का की दृष्टि के संबंध में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। अनुसरण करते हैं। इसका यह अर्थ हुआ कि अगर वे एक दूसरी कठिनाई भी है; हमारी दृढ़ वस्तुवादी बोचवर के (B.) अथवा Lukasiewicz की (L.) नामक व्याख्या के विरुद्ध यह आपत्ति की जा सकती है कि चाहे त्रिकोटिक तर्कशास्त्र को अपनाए और क्रमशः इनको वस्तु में परस्पर विरोधी धर्म सचमुच रहते हैं. किंतु वह यथाक्रम BE, अथवा LE, नामक बाह्य त्रिकोटिक तर्कशास्त्र सदसदात्मक नहीं हो सकती, क्योंकि सत् और असत् वस्तु (external three valued logic) में परिवर्द्धित करके के धर्म नहीं हैं। आज दर्शन में सामान्यतः सत् को विधेय के धर्म नहीं हैं। याज दर्शन में यातायात उसमें एक बाह्य घोषक चिह्न A (external assertion नहीं माना जाता। sign) को भी शामिल करें तो वह बौद्ध चतुष्कोटि का उत्तर में यह कहा जा सकता है कि आज के तार्किक आधार बन सकता है। इसका कारण यह है कि BE न्यायशास्त्र में अस्तित्व को विधेय इसलिए नहीं माना जाता तथा LE में टारसकि की T-schema लागू नहीं होती। कि किसी पदार्थ के अस्तित्व को बताना सिद्ध साधन है और अतः इनमें घोषकता शर्त (assert-ability condition) उसी स्थिति में उसके अस्तित्व को नकारना विरुद्ध कथन और धर्मारोपक शर्त (characterisability condition) है। दूसरे शब्दों में समस्या यह है कि 'x है' और 'x लाल एक-दूसरे से पृथक हो जाती है। है' इन दोनों को यदि हम एक जैसा ही समझें और लाल इसके अतिरिक्त 'B,' में और 'L,' में न तृतीय । तथा अस्तित्व को तर्क की दृष्टि से एक ही कोटि का मानें तो विकल्पाभाव का नियम लागू है, न अविरोध का नियम और एक तार्किक कठिनाई पैदा हो जाती है; किंतु यह कठिनाई इसलिए BE, तथा LE, अनेकांत की सुदृढ़ वस्तुवादी आधुनिक तर्कशास्त्र की कुछ अंतर्निहित प्राक्-कल्पनाओं के व्याख्या के साथ सुसंगत है। तथापि इन दोनों पद्धतियों में कारण है न कि अस्तित्व की किसी अंतर्निहित विशेषता के तृतीय विकल्पाभाव का नियम अविरोध के नियम के समान कारण। मैंने कहीं यह भी बताया है कि अस्तित्व को भी ही है। अतः इन दोनों नियमों को एक-दूसरे से इस प्रकार बिना किसी तार्किक कठिनाई के विधेय माना जा सकता है। अलग नहीं किया जा सकता कि इनमें से एक को स्वीकार कर लिया जाए और दूसरे को स्वीकार न किया जाए। यद्यपि अतः यदि अस्तित्व को एक बार विधेय अथवा वस्तु का धर्म यदि मतिलाल के मत को मान लें तो नागार्जुन और जैन मानले तो उपर्युक्त बाधा दूर हो जाती है। दृष्टि के बीच भेद करने के लिए ऐसा करना आवश्यक है। एक आपत्ति फिर भी उठ सकती है कि भले ही सत् मतिलाल यह नहीं बता सके कि ऐसा कैसे किया जा सकता विधेय बन सकता हो, तथापि सत् और असत् दोनों युगपत् है? और यही जे.एफ. स्टाल द्वारा उनकी (मतिलाल की) एक वस्तु में नहीं रह सकते, क्योंकि वस्तु स्वयं में असंगत विरोधी आलोचना किए जाने का मुख्य आधार है। मैंने नहीं हो सकती। ब्रेडले ने यही कहा था और विटगेंस्टाइन ने अपने एक स्वतंत्र निबंध (1992) में यह बताया है कि भी Tractatus में यही कहा था कि तर्कविरुद्ध अर्थात् जब तृतीय विकल्पाभाव और अविरोध के नियम में से एक को कोई भी विषय असंगतिपूर्ण होता हो तो उसे नहीं सोचा जा स्वीकार करके दूसरे को अस्वीकार करते हुए किस प्रकार सकता। हमारा उत्तर सरल है। ब्रेडले ने तत्त्व मीमांसा के एक तर्क प्रणाली विकसित की जा सकती है (किंतु ऐसे और आधार पर अपना पक्ष रखा है और इसलिए उसकी इस प्रकार के दूसरे विषयों पर हम इस निबंध में चर्चा नहीं युक्तिसंगतता सिद्ध करनी होगी जबकि विटगेस्टाइन का करेंगे)। इस बीच यह कहा जा सकता है कि जैन मत तत्त्वज्ञानीय नहीं है और उसका यह अर्थ नहीं है कि अनेकांतवाद और नागार्जुन के संशयवाद के बीच अंतर जिस वस्तु के संबंध में हम सोच रहे हैं, वह स्वयं में विरोधी समझने का एक सरल उपाय है। मतिलाल से हम सहमत हैं नहीं हो सकती। विटगेस्टाइन का कहना केवल इतना है कि कि नागार्जुन प्रसज्य-प्रतिषेध को मानते हैं, इसलिए वे यदि वस्तु अपने में विरोधी है तो हम तर्क के चश्मे से केवल चतुष्कोटि का निषेध कर सकते हैं। इसके विपरीत जैन उसका एक पक्ष ही एक समय में देख सकते हैं। बस इतना संशयवादी नहीं है और इसलिए वह माध्यमिक के उत्तर में ही है। इसके अतिरिक्त कुछ बिंदुओं पर विचार करें 20111111111111111111111 ग्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 अनेकांत विशेष.35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152