Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 117
________________ अर्थात् वह अग्रणी है, वह यज्ञ में सर्वप्रथम प्रणीत की जाती है, जिस ओर वह जाती है, उस ओर की प्रत्येक वस्तु को अपना अंग बना लेती है। स्थौलाष्ठीवि ऋषि का मंतव्य है कि यह सुखाने वाली है। शाकपूणि आचार्य की दृष्टि में अग्नि शब्द तीन क्रियाओं के मेल से बना है— इंगगतौ से अ अञ्चु व्यक्ति धातु से या दह धातु से मध्य अक्षर ग् तथा नी (ले जाना) से नि शब्द लेकर 'अग्नि' शब्द बना। इस शब्द में अनेक धातुओं का सम्मिलन होने से अनेक विरोधी धर्मों का अस्तित्व है वह ज्ञान रूप है, वह जाता है, वह चमकता है, वह प्रकाश रूप है, वह जलाता है तथा वह हविष्यान्नादि को ले जाता है। देव शब्द भी अनेक धर्मों एवं अर्थों का समवाय है। निर्वचनकार यास्क ने लिखा है— देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनात्वा यु स्थानो भावतीतिवा । देव, दान, दीपन और द्योतन स्वभाव वाला होता है। यहां पर वा शब्द अनेक धर्मों का संग्राहक है। अग्नि का एक नाम 'वैश्वानर' भी है। वैश्वानर शब्द अनेक विरुद्ध अविरुद्ध धर्मों का वाचक है। वैश्वानर का निर्वाचन है— विश्वान् नरान्नयति । विश्व एनं नरा नयन्तीति वा । अवि वा विश्वानर एवं स्यात् । प्रत्यृतः सर्वाणि भूतानि तस्य वैश्वानरः (निरुक्त 7.21) अर्थात् वह समस्त मनुष्यों को ले जाता है अथवा समस्त मनुष्य उसको ले जाते हैं अथवा समस्त उत्पन्न प्राणियों को व्याप्त करता है। वैश्वानर दो परस्पर विरोधी धर्मों के समवाय का वाचक है। एक जगह यह स्वयं लोगों को ले जाता है तथा इसके विपरीत दूसरे निर्वाचन में लोग इसे ले जाते हैं—ऐसा कहा गया है। अग्नि को 'जातवेदस्' भी कहते हैं। ॐ उदुत्यं जातवेदसं देवं बहन्ति केतवः । (ऋग्वेद 1.50.1) 116 • अनेकांत विशेष जाते-जाते विद्यत इतिवा जातवित्तो वा । । जातधनः जातविद्यो वा जातप्रज्ञानः । अर्थात् वह जातवेदा समस्त उत्पन्न प्राणियों को जानता है जो समस्त उत्पन्न प्राणियों के द्वारा जाना जाता है या वह समस्त प्राणियों में व्याप्त या समस्त प्राण उसके धन के रूप में हैं या समस्त प्राणी उसके ज्ञान अथवा विचार रूप हैं। यहां पर भी जातवेदा के अनेक गुण, जो विरोधी एवं अविरोधी हैं, समन्वित रूप से साहचर्य में है। । Jain Education International वैदिक अंग साहित्य में भाषिक अनेकांत विषयक अवधारणाएं वैदिक भाषा के छह अंग होते हैं—शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष व्याकरण, निरुक्त और छंद का सीधा भाषा से संबंध है। व्याकरण - व्याकरण को मुख कहा जाता है—मुखं व्याकरणं स्मृतम् | यह सभी विधाओं में श्रेष्ठ तथा सबका उपकारक है। पतंजलि ने इसे 'महान्देव' कहा है। व्याकरण में भाषा की शुद्धता का परिज्ञान होता है । व्याकरण के नियमों में विकल्प प्रयोग, बहुल प्रयोग, छांदस प्रयोग आदि भाषिक अनेकांत की सूचना देते हैं। आचार्य पतंजलि ने तो यहां तक कहा कि दो विरोधियों के अस्तित्व सामान्य और अपवाद नियम को स्वीकार किए बिना भाषा के आधार स्वरूप व्याकरण की गाड़ी एक पग भी नहीं चल सकती है। आचार्य पतंजलि महाभाष्य के प्रथमाह्निक में कहते हैं व्याकरण को मुख कहा जाता है— मुखं व्याकरणं स्मृतम् । यह सभी विधाओं में श्रेष्ठ तथा सबका उपकारक है। पतंजलि ने इसे 'महादेव' कहा है । व्याकरण में भाषा की शुद्धता का परिज्ञान होता है। व्याकरण के नियमों में विकल्प प्रयोग, बहुल प्रयोग, छांदस प्रयोग आदि भाषिक अनेकांत की सूचना देते हैं आचार्य पतंजलि ने तो यहां तक कहा कि दो विरोधियों के अस्तित्व सामान्य और अपवाद नियम को स्वीकार किए बिना भाषा के आधार स्वरूप व्याकरण की गाड़ी एक पग भी नहीं चल सकती है। I - उत्सर्ग और अपवाद ही सामान्य विशेष हैं। कुछ इस मंत्र में प्रयुक्त जातवेदस शब्द विचारणीय उत्सर्ग सामान्य नियम तथा कुछ अपवाद विशेष नियम का है— जातवेदाः कस्मात् जातानिवेद जातानि वैनं विदुः । प्रवर्तन करना चाहिए यहां पर स्पष्ट रूप से संकेतित है कि स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती कथं नहीं शब्दाः प्रतिपत्तव्याः । अर्थात् शब्दों को कैसे जानें। For Private & Personal Use Only किंचितसामान्यविशेषवल्लक्षणं प्रवर्त्यम् अर्थात् कुछ सामान्य और विशेष नियम से युक्त शास्त्र का प्रवर्तन करना चाहिए। सामान्य विशेष क्या हैं ? मार्च - मई, 2002 www.jainelibrary.org

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