Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 116
________________ 7. एक स्थल पर अदिति से दक्ष और दक्ष से अदिति इस प्रकार वैदिक भाषा में अनेक ऐसे प्रसंग और की उत्पत्ति हुई। यहां स्पष्ट रूप से दो विरोधी धर्मों की बात शब्द हैं जो परस्पर विरुद्धाविरुद्ध धर्मों के समवाय के कही गई है। लोक व्यवहार में यह कैसे संभव है। आचार्य अभिव्यंजक बनते हैं। यास्क समाधान करते हैं-अपिवा देवधर्मेणेतरेत्तर जन्मानौ एक वस्तु (शब्द) में अनेक गुण स्याताम्। इतरेतरप्रकृति । (निरुक्त 11.25) प्रथमतया 'वेद' शब्द ही अनेक धर्मात्मक वस्तु की उपर्युक्त प्रसंगों में एक वस्तु को अनेक रूपों में या एक दष्टि से विचारणीय है। वेद शब्द संस्कत की पांच धातओं ही वस्तु में अनेक धर्मों की उपस्थापना की गई है। माता-पिता से निष्पन्न होता है—विदज्ञाने, विदललाभे विदसत्तायाम आदि अनेक रूपों में एक वस्तु की उपस्थापना अन्य ग्रंथों में विदविचारणे, विदचेतनाख्याननिवासेष, आदि से घन प्रत्यय भी मिलती है। श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन की स्तुति में करने पर वेद शब्द निष्पन्न होता है। यह 'वेद' शब्द अनेक भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक धर्मों के समवाय की बात कही है। अर्थों एवं धर्मों को धारण किए हुए है। धातुओं के आधार पर वे धर्म परस्पर विरुद्ध भी हैं, अविरुद्ध भी हैं वेद शब्द का अर्थ ज्ञान की परम प्राप्ति का साधन, सत्ता, त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण चिंतन, चेतना, आख्यान (इतिहास) तथा सभी श्रेयस् त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। पदार्थों का अधिष्ठान है। ऋग्वेद का प्रारंभ अग्नि की स्तुति से होता है। वह अग्नि अनेक गुणों का धारक है। ऋग्वेद का वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम प्रथम मंत्र हैत्वया ततं विश्वमनन्तरूप। (गीता. 38) अग्निमीडे पुरोहितं यज्ञस्य देवं ऋत्विजं होतरम अर्थात् हे श्रीकृष्ण ! आप आदिदेव सनातन पुरुष हैं, रत्नधातमम्। (ऋग्वेद 1.1.1.) आप इस जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा अर्थात् अग्नि पुरोहित (यजमान का कल्याणकारक), जानने योग्य हैं, परमधाम हैं। हे अनंत रूप, आपसे यह यज्ञ का प्रधान देव, प्रधान ऋत्विज, होता तथा विभिन्न रत्नों जगत परिव्याप्त है। का, ज्ञानादि गुणों का धारक है। यहां विविध धर्मों के भागवतपुराण की स्तुतियों में ऐसे अनेक प्रसंग हैं। समवाय हैं—अग्निदेव । वे पुरोहित भी हैं, यज्ञ के प्रधान देव जहां एक ही वस्तु (प्रभु) में अनेक विरोधी धर्मों का समवाय भी हैं. अन्य देवों को बलाकर लाने वाले भी हैं। यही नहीं, उपस्थित है। 'गजेंद्रमोक्ष' नामक विश्वप्रसिद्ध 'भक्ति-प्र तिशि अपि लोग दमनस एवं गहपति के स्तोत्र' में भगवान में विविध विरुद्ध धर्मों का निरूपण हुआ नारी को अभिहित करने में हविष्यात को है। भक्तराज गजेंद्र कहता है-- ग्रहण कर अन्य देवों तक पहुंचाते हैं, इसलिए उन्हें न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा हव्यवाहन कहते हैं। बलि आदि भी अन्य देवों के पास ले न नाम रूपे गुणदोष एव वा। जाते हैं, इसलिए उन्हीं को क्रव्यवाहन भी कहते हैं। शरीर तथापि लोकाप्यय संभवाय को चिता में जला भी देते हैं, इसलिए उन्हीं को क्रव्याद् भी ' कहते हैं। केवल ऋग्वेद में शताधिक विभिन्न विरोधी गुणों यः स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति।। (भा.पु. 8. 3.8) से युक्त अग्नि को बताया गया है। यही नहीं, अग्नि और हे प्रभो। आपका न जन्म है, न कर्म है, न नाम-रूप है, देव शब्द भी अनेक धर्मात्मक हैं। अग्नि शब्द का बड़ा ही न गण-दोष, लेकिन लोक की उत्पत्ति-विनाश-कल्याण के संदर एवं विविध धर्मों का समन्वयपरक निर्वचन आचार्य लिए आप अपनी माया से अनेक रूपों का सृजन करते हैं। यास्क ने किया हैभगवान श्रीकृष्ण के अनेक रूपों का वर्णन निम्न अग्निः अग्रणीभवति, अग्रंयज्ञेष प्रणीयते अडं नयति म श्लोक में द्रष्टव्य है सन्नममानः श्रियपतिः यज्ञपति प्रजापति अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठिविः, न क्नोपयति न धियांपतिः लोकपतिः धरापतिः । स्नेहयति। पतिगतिश्चान्धकवृष्णि सात्वतां त्रिभ्यः आख्यातेभ्यः जायते इति शाकपूणिः। इतात् अक्तात् प्रसीदतां मे भगवान् सतां पतिः।। (भा. पुराण) दग्धाद् वा नीतात्। (निरुक्त 7.14) स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती मार्च-मई, 2002 | अनेकांत विशेष • 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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