Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 33
________________ क्यों नहीं हो सकते—यह भी बिल्कुल स्पष्ट नहीं है। यह भी पता नहीं चलता, ये सात विकल्प अन्योन्यव्यावर्तक किस प्रकार हैं और इनकी अपेक्षा कम विकल्प क्यों नहीं हो सकते ? (जैन तर्क भाषा 21 प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार - IV, 14-21) 6 5 इस स्थिति से बहुत परेशानी पैदा होती है कि शास्त्रों में इन सात भंगों के अन्योन्यव्यावर्तक होने का तथा सब विकल्पों का इन सात में ही समाविष्ट होने का कोई स्पष्ट और घुमाव-रहित युक्तिसंगत उत्तर नहीं दिया गया है । अतः वर्तमान समय के बी. के. मतिलाल जैसे विद्वानों ने सप्तभंगी का औचित्य सिद्ध करने के लिए हेतु दिया है। मतिलाल ने '+' का चिह्न यह बताने के लिए इस्तेमाल किया है कि 'S' में 'P' धर्म (जैसा कि अस्तित्व) रहता है। का चिह्न यह बताने के लिए इस्तेमाल किया है कि 'P' का प्रतिपक्षी धर्म 'Not P अर्थात् अनस्तित्व ‘S’ में रहता है। और 'O' का उपयोग यह बताने के लिए किया है कि 'S' मैं न 'P' (अस्तित्व) है, न 'P' का प्रतिपक्षी 'Non-P' (अर्थात् अनस्तित्व), दूसरे शब्दों में 'O' का यह अर्थ है कि 'S' में कोई भी धर्म नहीं है। गणित द्वारा इन तीन मूलभूत वाक्यों के ठीक संयोग (Combination) दिखाने संभव हैं। तीन अलग वस्तुओं से कुल सात संयोग ही बन सकते हैं क्योंकि231=1 "C=23_1=7 मतिलाल की यह योजना औपचारिक रूप से उत्तम है और सप्तभंगी की व्याख्या कर देती है, किंतु इसमें यह नहीं बताया गया कि 'O' जो कि अस्ति और नास्ति का संयोग है, उसे अस्ति और नास्ति के समकक्ष मूलभूत तत्त्व क्यों माना जाना चाहिए। मैं मतिलाल की व्याख्या से भिन्न सप्तभंगी के औचित्य सिद्ध करने के लिए एक दूसरी विधि देना चाहता हूं। जो व्याख्या सप्तभंगी की संगति बैठाने के लिए मैं देना चाहता हूं, उसके लिए भाषा और भाषा के द्वारा अभिव्यक्त की जाने वाली वस्तु के पारस्परिक संबंध के बारे में जैन दृष्टि को समझना आवश्यक है। जैन दृष्टि से (1) भाषा और उसके द्वारा वाच्य वस्तु एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। (2) कोई भी वस्तु भाषा के द्वारा तभी अभिव्यक्त हो सकती है जब उसमें कोई न कोई धर्म रहता हो। 'S' के धर्म • विशिष्ट होने का यह अर्थ नहीं है कि उसे भाषा में 32 • अनेकांत विशेष Jain Education International , अभिव्यक्त किया ही जा सके। दूसरे शब्दों में यह संभावना सदा बनी रहती है कि किसी पदार्थ की धर्मविशिष्टता भाषा द्वारा वाच्य हो अथवा न हो। इस प्रकार 'S' के 'P' धर्म को निम्न चतुर्भंगी में अभिव्यक्त किया जा सकता है- (अ) 'S' में 'P' है, (ब) 'S' में 'P' नहीं है, (स) 'S' में 'P' है भी और 'P' नहीं भी है, (द) 'S' में न 'P' है, न 'अ- P' (Not-P) है। यदि इन चारों वाक्यों के साथ हम यह कहें कि ये चारों स्थितियां भाषा में कही भी जा सकती हैं, नहीं भी कही जा सकतीं, तो शुद्ध तर्क की दृष्टि से आठ संभावनाएं बनती हैं। किंतु ऊपर दी गई चार संभावनाओं में अंति भाषा द्वारा बक्तव्य है ही नहीं, इसलिए हमारे पास सात ही संभावनाएं शेष रहती हैं। 'S' जैसी वस्तु दो प्रकार से वाचिक रूप से अवक्तव्य हो सकती है— (1) यदि 'S' में कोई धर्म है ही नहीं तो ऊपर दिए गए दूसरे नियम के अनुसार उसे भाषा में कहा ही नहीं जा सकेगा अथवा, (2) 'S' भाषा में इसलिए नहीं कहा जा सकता कि, यद्यपि इसमें कुछ धर्म है तो सही, किंतु उसमें वह इस प्रकार से है कि भाषा की पकड़ में नहीं आता। एक उदाहरण द्वारा यह स्थिति स्पष्ट की जा सकती है। ब्रह्म निर्गुण है इसलिए उसे भाषा में नहीं कहा जा सकता, यह प्रथम प्रकार की अवाच्यता हुई। दूसरी प्रकार की अवाच्यता ब्रह्म और माया के बीच परस्पर संबंध की है, किंतु इस अवाच्यता का दूसरा कारण है। ऐसा नहीं है कि दोनों के बीच कोई संबंध ही नहीं है, क्योंकि माया चार बाहुयुक्त त्रिभुज की तरह सर्वथा असत् नहीं है। किंतु यह उस संबंध का स्वभाव है जो कि भाषा की अभिव्यक्ति की क्षमता से परे है। इनमें प्रथम प्रकार की अवक्तव्यता शुद्ध अवक्तव्यता है जो कि स्याद्वाद के चतुर्थ भंग 'स्यात् अवक्तव्य' में बताई गई है। जबकि सत्ता की दृष्टि से धर्मयुक्त होने पर भी अवक्तव्यता के कारण अंतिम तीन भंग उत्पन्न होते हैं, अर्थात् 'स्यात् अवक्तव्यम् च अस्ति च' इत्यादि। अब होता यह है कि एक रोचक समरूपता उत्पन्न होती है। जबकि हम 'S' के धर्मों की सांभावनिक (Modal) जटिलता को आरोह क्रम में रखते हैं, तो पहले वाच्य धर्मों को रखते हैं और फिर अवाच्य धर्मों को। सबसे सरल वक्तव्य प्रथम भंग बन जाता है—'स्यात् घटोस्ति ।' दूसरा वक्तव्य बनेगा'स्यात् घटः नास्ति ।' इन दो वक्तव्यों का संयोग अधिक जटिल, तीसरा भंग बनेगा 'स्यात् घटः अस्ति च नास्ति च ।' चौथा भंग अवाच्य के अंतर्गत होगा जिसमें हम किसी स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only मार्च - मई, 2002 www.jainelibrary.org

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