Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 13
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/11 की अपेक्षा राज्य और वैभव को अधिक महत्व देता है वह निम्न श्रेणी का होता है; क्योंकि दिगम्बर जैन धर्म के समक्ष राज्य वैभव तुच्छ है, अतः उस क्षणिक वैभव की तुलना दिगम्बर जैन धर्म के साथ नहीं हो सकती। हे स्वामी ! आश्चर्य की बात है कि आप दिगम्बर जैन धर्म के मर्मज्ञ होने पर भी ऐश्वर्य को महत्व दे रहे हैं ? क्या आपने अनित्य सुख को हितकर मान लिया है। क्या आप बंधुश्री को नरक में डालना चाहते हैं ? आपकी पुत्री अत्यन्त धर्मानुरागिनी है। यदि उसका विवाह विधर्मी के साथ होगा तो उसका उद्धार होना असम्भव है। संसार में अनन्तकाल परिभ्रमण करते-करते अत्यन्त कठिनता से दिगम्बर जैन धर्म की प्राप्ति होती है, जो व्यक्ति दिगम्बर जैन धर्म को पाकर अपना कल्याण नहीं करता उसके समान मूर्ख और कौन हो सकता है ? विधर्मी राजा के साथ अपनी कन्या का विवाह करना अर्थात् कन्या को सिंह के लिए समर्पण करने के समान है। समझ में नहीं आता कि आप सम्पत्ति में मुग्ध कैसे हो गये ? धन, वैभव की प्राप्ति में कुछ भी पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता; परन्तु धर्म प्राप्त करने में तो बहुत पुरुषार्थ करना पड़ता है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि संसार में दिगम्बर जैनधर्मी को वैभव स्वयं अपने पुण्यानुसार पर्याप्त प्राप्त होता है। विभूतियाँ उसके चरणों की दासी बन जाती हैं। जो क्षणिक ऐश्वर्य को देखकर जैनधर्मको छोड़ देता है, वह कांच कीचमकको देखकर माणिक को छोड़ देने वाले के समान है। मिथ्यादृष्टि का वैभव स्थिर नहीं रहता। उसकी सम्पत्ति थोड़े ही दिनों में नष्ट हो जाती है और वह दर-दर का भिखारी बनकर भटकता है। ऐश्वर्य होना कोई बड़प्पन नहीं है; परन्तु सत्य दिगम्बर धर्म को धारण करने से ही मनुष्य महान बन जाता है। आप बुद्धिमान हो, धर्मात्मा हो, धर्म के वास्तविक स्वरूप को जानने वाले हो; तो भी आपको ऐसा भ्रम क्यों हुआ? आप स्वयं विचार करो, मेरी बात आपको कैसी लगती है ? मैं आपको क्या उपदेश दे सकती हूँ ? आप विशेषज्ञ हो, शास्त्र की मर्यादा के ज्ञाता हो - इस कारण मुझे आपकी आज्ञा ही शिरोधार्य है। फिर भी मैंने आपकी आज्ञानुसार अपने विचार आपके समक्ष

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