Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 61
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/59 _ विद्वान ने आगे कहा- 'वे लोगों के घर आटा पीसकर काम चलाती हैं। ये पैसे कई महिने में एकत्र कर पायी थीं। यही उनकी सारी पूंजी थी।' विद्वान ने आगे कहा-'सर्वस्वदान करनेवालीउन श्रद्धालु माताकोमैं प्रणाम करता हूँ।' लोगों ने मस्तक झुका लिये। सचमुच बुढ़िया का मनसे दिया हुआ यह सर्वदान ही सबसे बड़ा और महान था। वस ठीक इसीप्रकार जबतक यह आत्मा अपने उपयोग को बाहर से समेट कर अपने में पूरी तरह समर्पित नहीं करता, तबतक उसेसम्यग्दर्शन होना असम्भव है। भले ही उसे कितने ही शास्त्रों का ज्ञान क्यों न हो जावे, भले ही वह घर छोड़कर त्यागी क्यों न हो जावे; परन्तु जबतक वह किंचित् भी उपयोग पर में जोड़कर रखेगा अर्थात् श्रद्धा में पर से अपना हित मानेगा, तबतक धर्म प्रगट होने वाला नहीं है। मुझे बिल्कुल... (12) समय नहीं मिलता एक दिन एक धर्मप्रेमी मित्र ने लक्ष्मीपुत्र सेठ धनदासजी से कहा - सेठ साहब ! आप और तो सब कुछ करते रहते हैं, किन्तु जिससे करने का मार्ग मिलता है, जिससे जीवन को दिशा मिलती है, जिससे जीवन के सच्चे स्वरूप का पता चलता है, तथा जिससे आत्मा में सच्ची सुख शांति के दर्शन हो सकते हैं, उस आत्महितकारी सच्चे मित्रवत् स्वाध्याय को आप नहीं करते हैं। चौबीस घण्टे में कभी भी सुविधानुसार एकघण्टे का समय निकालकर स्वाध्याय अवश्य किया करें। यह सुनकर सेठ साहब ने अपने ऊपर संकट-सा आता हुआ अनुभव कर अपने बचाव के लिए हमेशा का अभ्यस्त-सा उत्तर दिया - ___ “मित्र ! तुम तो जानते ही हो कि अब इतना काम बढ़ गया है कि मुझे एक मिनिट की/मरने-जीने की भी फुरसत नहीं। सुबह से लेकर शाम तक तथा शाम से लेकर आधी रात तक काम ही काम रहता है। पढ़ने की किसे फुरसत है ? मित्र ने कहा - सेठ साहब ! मरने की फुरसत तो उसी समय मिल जाती

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