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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/16 गये थे। कर्मवीर लुब्धक ऐसे समय में भी अपने दूसरे बैल के लिये लकड़ियाँ लेने स्वयं नदी के किनारे गया और उसने बहती नदी में से लकड़ियाँ निकाल कर गट्ठर बांधा और सिर पर रखकर घर की ओर चल दिया। सत्य है कि - "तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही।"
रानी पुण्डरिका महल के झरोखे में बैठकर प्रकृति की शोभा देख रही थी, महाराज भी उनके साथ बैठे हुए थे। रानी ने बरसात में लुब्धक को लकड़ी के भार से लदे हुए आते देखकर राजा से कहा कि “प्राणनाथ ! तुम्हारे राज्य में यह कोई बहुत दरिद्री है। देखो, बरसात में भी लकड़ियों का गट्ठर लेकर आ रहा है। आप इसकी कुछ सहायता करो, जिससे इसका दुःख दूर हो।''
राजा ने उसी समय लुब्धक को बुलाया और कहा लगता है कि तुम्हारे घर की हालत ठीक नहीं है, इसलिये तुम्हें जितने द्रव्य की आवश्यकता हो उतना भण्डारी से ले जाओ। __ लुब्धक ने कहा- महाराज! मुझे अन्य कुछ नहीं चाहिये, सिर्फ एक बैल की जरूरत है। राजा ने अपने बैलों में से एक बैल ले जाने को कहा। राजा के समस्त बैलों को देखकर लुब्धक ने राजा से कहा- हे पृथ्वीपति! आपके बैलों में मेरे बैल जैसा एक भी बैल नहीं है। यह सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ। राजा ने लुब्धक से कहा- भाई ! तेरा बैल कैसा है ? मैं देखना चाहता हूँ। लुब्धक प्रसन्नता से राजा को अपने घर ले गया और अपना सोने का बैल दिखाया। राजा जिसको बहुत निर्धन मान रहा था, उसे इतना धनवान देखकर राजा को बहुत आश्चर्य हुआ।
लुब्धक की पत्नी नागवसु राजा को अपने घर आया देखकर राजा के लिए भेंट देने हेतु सुवर्ण थाल को बहुमूल्य रत्नों से सजाकर लाई और अपने पति से महाराज को भेंट देने के लिए सांकेतिक भाषा में कहने लगी। थाल को रत्नों से भरा देखकर लुब्धक की छाती फटने लगी; परन्तु महाराज के समीप में ही खड़े होने के कारण वह इंकार नहीं कर सका। अत: उसने थाल