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. जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/33 भोगोपभोग की सामग्री एकत्रित करता हूँ। इसलिये इस चक्रवर्ती के साम्राज्य को धिक्कार है।
यह आयुष्य वायु के समान है, भोग मेघ के समान हैं, स्वजनों का संयोग नष्ट होने वाला है, शरीर पापों का आयतन है और विभूतियाँ बिजली के समान चंचल हैं। यह युवावय, मार्ग से भ्रष्ट होने का कारण होने से गूढ़ वन समान है। जो विषयों में प्रीति है वह राग-द्वेष को बढ़ाने वाली है। इन वस्तुओं में से सुख वहाँ तक ही मिलता है, जहाँ तक बुद्धि में विपर्यास होता है और जब सुबुद्धि आती है, तब ऐसा मालूम पड़ता है कि ये सब विषय-कषाय दुख के ही साधन हैं, हमारे आत्मसुख के घात करने वाले होने से छोड़ने योग्य हैं।
जब अभिलाषारूपी जहर के अंकुरों से इस चित्तरूपी वृक्ष की हमेशा वृद्धि होती है, तब संभोग रूपी डाली पर दुःखरूपी फल कैसे नहीं लगेंगे? मैंने इच्छानुसार दीर्घकाल तक सभी प्रकार के भोग भोगे; परन्तु इस भव में तृष्णा को नाश करने वाली तृप्ति मुझे रंचमात्र भी नहीं मिली। यदि अपनी इच्छानुसार समस्त ही पदार्थ एक साथ मिल जाएँ, तो भी उससे कुछ भी सुख नहीं मिलता; क्योंकि संयोग में आने पर तृप्ति नहीं होती और उन सभी को भोगने की इसकी क्षमता नहीं है। अतः जीव सदा दुःखी ही रहता है। इसलिए अब अपने आत्मा के ही सच्चे सुख को प्राप्त करके मैं शीघ्र ही पुरुष बन सकता हूँ- पुरुषत्व का स्वामी बन सकता हूँ अर्थात् आत्मा को स्वीकार कर पर्याय में भी परमात्मा बन सकता हूँ।
इसप्रकार चक्रवर्ती सम्राट श्रीपाल ने चक्ररत्न सहित समस्त परिग्रहों को एक साथ छोड़ने का निर्णय किया और दीक्षा ग्रहण करके तप द्वारा कर्मों का नाशकर, केवलज्ञान प्रगटकर आयु के अन्त में मोक्ष प्राप्त किया।
- ऐसे तद्भव मोक्षगामी सभी भव्यात्माओं/परमात्माओं को हमारा नमस्कार हो।