Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 22
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/20 जन्म दिया। पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में सेठ ने उत्सव किया, पूजा प्रभावना की और उस बालक का नाम प्रीतिंकर कुमार रखा। उसकी सुन्दरता कामदेव के समान थी। जब प्रीतिंकर पांच वर्ष का हुआ तो उसके पिता ने उसे विद्या पढ़ने के लिये गुरु के पास भेज दिया, कुमार अपनी कुशाग्रबुद्धि के कारण थोड़े ही समय में विद्वान बन गया। धनी और विद्वान होने पर भी प्रीतिंकर में अभिमान का नामोनिशान नहीं था। वह हमेशा शिक्षण देता और धर्मोपदेश करता। महाराज जयसेन भी उसकी इस परोपकारिता से अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने वस्त्राभूषणों से प्रीतिंकर का सम्मान किया। यद्यपि प्रीतिंकर को धन की कमी नहीं थी; तथापि उसको कर्तव्यहीन होकर बैठा रहना ठीक नहीं लगा। उसे धन प्राप्त करने की इच्छा हुई। उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं स्वयं धनोपार्जन नहीं करूँगा तब तक विवाह नहीं करूँगा। ऐसी प्रतिज्ञा करके वह धनोपार्जन हेतु विदेश के लिये रवाना हुआ। विदेश में वर्षों रहकर प्रीतिंकर कुमार ने बहुत धन अर्जित किया और उस धन सहित जब वापस घर आया, तब उसके माता-पिता आदि सभी को अत्यन्त आनन्द हुआ। प्रीतिंकर की ऐसी लगन देखकर महाराज जयसेन अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने अपनी पुत्री पृथ्वीसुन्दरी का विवाह प्रीतिंकर से करके उसे आधा राज्य भी दे दिया। इसी बीच अन्य देशों की राजकुमारियों के साथ भी प्रीतिंकर का विवाह सम्पन्न हुआ। प्रीतिंकर राज्यविभूति प्राप्तकर आनन्द पूर्वक रहने लगा। वह प्रतिदिन जिनपूजा एवं शास्त्र स्वाध्याय, तत्त्वचिंतन-मनन आदि करता था। परोपकार करना तो उसके जीवन का अंग था। एकबार सुप्रतिष्ठितपुर के सुन्दर बगीचे में चारण ऋद्धिधारी मुनि ऋजुमति और विपुलमति पधारे। प्रीतिंकर कुमार ने आदर पूर्वक उनका सम्मान किया और अष्ट द्रव्यों से उनकी पूजा करके धर्म का स्वरूप पूछा। मुनिराज ने धर्म का स्वरूप इसप्रकार बताया - प्रीतिंकर! धर्मवह है जिससे संसार केदुःखों से रक्षा तथा उत्तम सुख प्राप्त

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