Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 79
________________ CAR जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/77 जिनके सिर पर भार (24) वेडूबे मँझधार में ! जीव को कभी-कभी ज्ञान की ऐसी चोट लगती है कि जिससे उसका जीवन ही बदल जाता है। भव भोगों में रत रहने वाले राजा अजितवीर्य ने वीतरागी मुनिराज वज्रनंदी की अमृतवाणी से धर्मोपदेश सुनकर अनुरक्त जीवन को विरक्ति में बदल दिया। क्षणभंगुर दुखमय संसार का एवं स्वाधीन शाश्वत सुखमय मोक्ष का चित्र उनकी दृष्टि के सामने झूलने लगा। ___ राजा ने गुरुदेव के चरणों में प्रार्थना की कि हे भगवन् ! अभी तक मैं दुःख को सुख समझकर अज्ञान के अंधकार में भटक रहा था। मेरा ज्ञान नेत्र बन्द था। आपने करुणा करके उस नेत्र को खोल दिया है। अत: आप ही मेरा मार्ग प्रशस्त कीजिए। प्रभु ! मुझे जैनेश्वरी दीक्षा देकर मेरा जीवन सफल बनाइये। ___ मुनिराज ने राजा को दीक्षा देकर | एकान्त वनप्रान्त में ध्यान अध्ययन करने भेज दिया। राजा ने ईटों के खाली भट्टे पर प्रासुक जगह देखकर चिंतन-मनन प्रारम्भ कर दिया। राजा के दीक्षित होने का समाचार जब राजभवन में पहुँचा तो परिजन पुरजन अपने प्रिय राजा के विरह में शोक सन्तप्त हो उठे। महलों में रहने वाली रानी अनिन्द्यसुन्दरी घबड़ा कर कुछ परिजनों के साथ महाराज को ढूंढती हुई वन में जा पहुंची और राजा को मुनि अवस्था में देखकर चरणों में गिर पड़ी। फिर सावधान होकर अपने पतिदेव से बोली - तुम्हरे सिर पर भार कैसे बैठे भाड़ पर ? राज्य नार परिवार छोड़ा किस आधार पर ? यह सुनकर विरागी मुनिराज ने उत्तर दिया - जिनके सिर पर भार, सो डूबे मँझधार में। हमतो उतरे पार, झोंक भार को भाड़ में। सच है परिग्रह के भार से भारभूत प्राणी ही नरक निगोद के संसार सागर में अगणित काल के लिये डूब जाता है।

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