Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ --Z -:' PIPON जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/76 चन्द्रकेतु ने कहा - मैं तो ऐसी किसी वस्तु का ज्ञान नहीं रखता। ऐसा ज्ञान हो भी कैसे सकता है ? . राजा ने कहा बेटा ! ऐसा ज्ञान सब मनुष्यों को तो हो ही सकता है, किन्तु पशुओं को भी हो सकता है। यह सुनकर चन्द्रकेतु ने कहा - यदि ऐसा है तो सचमुच मेरा ज्ञान नगण्य है। तब तो मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ। आप ही मुझे उस तत्त्व का उपदेश दीजिए। इतना कहकर वह चरणों में गिर पड़ा। राजा ने कहा - बेटा ! वह तत्त्व हमारे तुम्हारे सबके पास है। उसको समझने के लिये किसी शारीरिक परिश्रम और दौड़धूप की आवश्यकता नहीं है। वह अपना ज्ञानज्योति आत्मतत्त्व है। जिसके जान लेने पर अन्य किसी को जानने की इच्छा नहीं रहती। फिर भी उसके ज्ञान से सबकुछ स्पष्ट जानने में आने लगता है। जिसके द्वारा जानने पर प्राणी जानता हुआ भी कुछ नहीं जानता, देखते हुए भी कुछ नहीं देखता अर्थात् फिर उसे अपने अलावा अन्य किसी भी पदार्थ से राग-द्वेष-मोह नहीं रहता। उस आत्मतत्त्व का ज्ञान होने पर ही आत्मा परमात्मा बन जाता है। संसार के सब दुःख नष्ट कर पूर्ण अनन्त सुखी और सर्वज्ञ बनकर लोकालोक का ज्ञाता बन जाता है। SHA मस्तक का भूषण गुरु आज्ञा, चूड़ामणि तो रागी माने। सत्-शास्त्र श्रवण है कर्णों का, कुण्डल तो अज्ञानी जाने ॥1॥ हीरों का हार तो व्यर्थ कंठ में, सुगुणों की माला भूषण। कर पात्र-दान से शोभित हो, कंगन हथफूल तो हैं दूषण ॥2॥ - मंगल श्रृङ्गार से साभार -

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84