________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/42 जिनेश-जी, स्मितसागर राजा जो निदानबंध कर धरणेन्द्र हुए थे, एकबार उन धरणेन्द्र ने अवधिज्ञान से जाना कि पूर्वभव का मेरा पुत्र अनन्तवीर्य मरकर नरक में गया है; इसलिए तुरन्त वे धरणेन्द्र उसे प्रतिबोधने के लिये नरक में पहुँचे। धरणेन्द्र को देखते ही नारकी जीवों को आश्चर्य हुआ कि यह कोई प्रभावशाली देव हमें मारने के लिये नहीं, किन्तु शान्ति प्रदान करने आये हैं; ऐसा समझकर वे सब नारकी क्षणभर के लिये एक-दूसरे के साथ लड़नाझगड़ना छोड़कर धरणेन्द्र की बात सुनने को आतुर हुए।
धरणेन्द्र ने अनन्तवीर्य के जीव को सम्बोधते हुए कहा – “हे भव्य ! इससे पूर्व के भव में तू तीन खण्ड का स्वामी वासुदेव था और मैं तेरा पिता था। धर्म को भूलकर विषय-भोगों की तीव्र लालसा के कारण तुझे यह नरक मिला है। अब फिर से अपने आत्मा की सुरक्षा कर और अपने खोये हुए सम्यक्त्व-रत्न को पुनः प्राप्त कर ले ! मैं धरणेन्द्र हूँ और तुझे प्रतिबोधने के लिये ही यहाँ आया
अहा! मानों नरक में अमृत पीने को मिला हो !! तदनुसार धरणेन्द्र के वचन सुनकर उस नारकी जीव को महान शान्ति हुई। वह गद्गद होकर हाथ जोड़कर कहने लगा- “हे तात् ! आपने इस नरक में भी मुझे धर्मोपदेश रूपी अमृतपान कराके महान उपकार किया है।" ___धरणेन्द्र ने कहा- “अरे! तू मनुष्यभव में त्रिखण्डाधिपति था और भविष्य में तीर्थंकर होनेवाले महात्मा अपराजित बलदेव तेरे भाई अर्हनिश जीवन के साथी थे; उस काल में जो तेरे साथी थे, उनमें से अनेक जीवों ने तो मोक्ष प्राप्त कर लिया, अनेक जीव स्वर्ग में गये और तू यहाँ नरक में पड़ा है।" यह सुनकर वह विचारने लगा कि - अरे ! पुण्यफल को भोगने वाले तो कितने ही जीव मेरे साथी थे; परन्तु अब इस पापफल को भोगने में कोई मेरा सहचर नहीं है; मैं अकेला ही पाप का फल भोग रहा हूँ । ___ तब धरणेन्द्र ने पुनः सम्बोधित करते हुए कहा- वत्स ऐसा नहीं है कि पुण्यफल भोगने में कोई साथी होता है और पापफल भोगने में नहीं। सबका फल तो जीव को स्वयं ही भोगना पड़ता है। कहा भी है -