Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 30
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/28 आत्मा को उस औदयिकभाव से भिन्न का भिन्न ही रखा। भाग्ययोग से उसीकाल में उन बलभद्रजी को यशोधर मुनिराज का समागम हुआ; उन्होंने चैतन्यतत्त्व का अद्भुत उपदेश देकर कहा कि “राजन् ! तुम तो आत्मतत्त्व के ज्ञाता हो; इसलिए अब इस बन्धुमोह को तथा शोक को छोड़ो और संयम धारण करके अपना कल्याण करो !! छह भव के पश्चात् तो तुम भरतक्षेत्र में तीर्थंकर होओगे; यह मोहासक्तिपूर्ण चेष्टायें तुम्हें शोभा नहीं देतीं, इसलिए तुम अपने चित्त को शान्त करो और उपयोग को आत्मध्यान में लगाओ।" मुनिराज का उपदेश सुनते ही बलदेव को वैराग्य उत्पन्न हुआ, उनकी चेतना झंकृत हो उठी - अरे ! किसका शरीर और कौन भाई ? जहाँ यह शरीर ही अपना नहीं है वहाँ दूसरा कौन अपना होगा? मम मोह कोई भी नहीं, उपयोग केवल एक हूँ। अरे ! मैंने मोहचेष्टा में व्यर्थ ही समय गँवा दिया - ऐसा विचारकर उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा लेकर उन अपराजित मुनिराज ने अपना मन आत्मसाधना में ही लगाया और अन्त समय में उत्तम ध्यानपूर्वक शरीर त्यागकर वे महात्मा सोलहवें अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए। गर्व किस पर? एक सम्राट मुनिराज के पास उपदेश सुनने के लिये पहुँचे । सम्राट ने बड़े गर्व से अपना परिचय दिया। मुनिराज ने पूछा -'तुम रेगिस्तान में भटक जाओ और प्यास से दम घुटने लगे और | उस बक्त कोई गन्दे नाले का लोटा भर पानी लाकर तुमसे कहे - 'इस लोटे भर पानी | का मूल्य आधा राज्य है।' तुम क्या करोगे ? सम्राट ने कहा – 'मैं तुरन्त वही पानी ले लूँगा।' . फिर मुनिराज ने कहा – यदि वह सड़ा पानी पेट में जाकर रोग उत्पन्न करने और | तुम मरणासन्न हो जाओ और उस समय एक हकीम पहुँचकर तुमसे कहे कि अपना आधा राज्य दे दो, मैं तुम्हें ठीक कर सकता हूँ। तब तुम क्या करोगे ? राजा बोला - उसे आधा राज्य देकर अपने प्राणों की रक्षा करूँगा। जीवन ही नहीं तो राज्य किस काम आयेगा ? . ___ तब मुनिराज ने समझाया कि - जो एक लोटे सड़े पानी और उससे उत्पन्न रोग के लिये दिया जा सके - ऐसे तुच्छ राज्य पर गर्व कैसा?

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