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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/47 घाटा रुपये से पूरा नहीं हो सकता। देखो सैकड़ों किसानों ने कपास पैदा की। मेरी स्त्री ने उसका सूत काता, उसको रंगा, फिर उसकी साड़ी बुनी। इतने लोगों की मेहनत बेकार गई। रुपये से इस मेहनत के घाटे को कैसे पूरा कर सकते हो ?
जुलाहा बड़ी शांतिपूर्वक अपने बेटे की तरह समझा रहा था। यह सुन कर लड़के की आँखें भर आईं। वह जुलाहे के पैरों पर गिरकर क्षमा याचना करने लगा।
जुलाहे ने उसे उठाते हुए कहा - 'बेटा ! अगर मैं दो रुपये का लालच करता तो तुम्हारी जिन्दगी का वही हाल होता, जो इस साड़ी का हुआ।वह जिन्दगी किसी के काम न आती। एक साड़ी खराब हुई तो दूसरी तैयार हो जायेगी, लेकिन जिन्दगी बिगड़ जाती तो दूसरी कहाँ से लाते ?
यह जुलाहा आगे चल कर दक्षिण भारत का विख्यात सन्त तिरुवल्लुवर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसने कुरल काव्य की रचना कर विश्व को अमूल्य निधि प्रदान की है।
अभयकुमारकी (3) निश्चल दृढ़श्रद्धा
. राजा श्रेणिक का नाम जग प्रसिद्ध है, उनके पुत्र अभयकुमार एक सम्यग्दृष्टी सद्गृहस्थ थे। वे वीतरागी सर्वज्ञ परमात्मा, अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह रहित वीतरागी गुरु एवं वीतरागता का कथन करनवाली जिनवाणी और सद्धर्म के सिवाय किसी अन्य देवादि को स्वप्न में भी नमस्कार नहीं करता थे। उनकी इस अटल श्रद्धा की सौधर्म इन्द्र ने भी अपनी सभा में बड़ी प्रशंसा की। इस प्रशंसा को सुनकर अपनी विक्रिया के घमण्ड में आकर एक देव ने कहा -
'इन्द्रराज यदि आज्ञा हो तो मैं अभी जाकर अभयकुमार को श्रद्धा से विचलित कर सकता हूँ। इन भूमिगोचरी गृहस्थों की क्या श्रद्धा ? ये तो थोड़े से ही संकट में डगमगा जाते हैं।