Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 68
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/66 क्रिया पर नहीं । चूँकि फल भावों का लगता है, अतः उसे इन निर्मल भावों का फल तत्काल ही मिला तथा आगे चलकर उसे धर्म की सत्य श्रद्धा हुई और धर्म मार्ग पर लग गया। इसीप्रकार हमें अपने प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में भावों को निर्मल, निश्छल और पवित्र बनाये रखना चाहिए। तभी हमारा वह अनुष्ठान कार्यकारी होकर उत्तम फलदायक होगा। किसकी जिनेन्द्र 16 भक्ति श्रेष्ठ है ? वन्दनीय कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है- “जो अरहन्त को द्रव्य-गुण- पर्याय से जानता है, वह आत्मा को जानकर अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है । " - इस सन्दर्भ में सम्यग्दृष्टी इन्द्र और शची इन्द्राणी की आदर्श भक्ति का प्रमाण देखिये - जो जिनेन्द्र सम अपनी शक्ति पहिचान कर अन्तर्मुख हो अगले भव में मोक्ष जायेंगे । एक दिन एक भवावतारी सौधर्म इन्द्र और शची इन्द्राणी अपने रत्नखचित दिव्य सिंहासन पर विराजमान थे । इन्द्र के सन्माननीय सामानिक देव तथा सभासद पारिषदगण यथास्थान अपने - अपने सिंहासन पर आसीन थे। इन्द्र के पीछे दिव्यास्त्रों से सुशोभित आत्मरक्षकदेव खड़ा था । चारों ओर असाधारण अनुपमेय स्वर्गीय सुख की आभा छिटक रही थी । बहुज्ञानी इन्द्र की सभा में जिनेन्द्र भक्ति की चर्चा चल रह थी । प्रसंगवश शची ने इन्द्र से कहा - स्वामिन् ! आपका जीवन तो कृतकृत्य हो चुका। आप ही सर्व प्रथम बालक तीर्थंकर प्रभु का 1008 स्वर्ण कलशों द्वारा क्षीरसागर जल से पाण्डुक शिला पर महाभिषेक करते हैं। आप ही आश्चर्यकारी भावपूर्ण तांडव नृत्य करते हैं, आप ही सर्वप्रथम 1008 नामों से भगवान की

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