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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/37 जड़ हैं; उनसे जीव भिन्न है। अरिहन्त एवं सिद्ध भगवन्त तो इन्द्रियों के बिना ही सबको जानते हैं; स्वानुभवी धर्मात्मा भी इन्द्रियों के अवलम्बन बिना ही आत्मा को अनुभवते हैं। इसप्रकार आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञानस्वरूप है।
इसप्रकार आत्मा का स्वरूप भले प्रकार समझाकर अन्त में वज्रायुध कुमार ने कहा- 'जीवका नित्यपना-क्षणिकपना, बंध-मोक्ष, कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदिसब अनेकान्त-स्याद्वाद नय से ही सिद्ध होता है। एकान्तनय सेवह कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता; इसलिये हे भव्य! तुम अनेकान्तमय जैनधर्मानुसार सम्यक् श्रद्धा करके अपना कल्याण करो!
इसप्रकार पण्डित वेश में आये हुए उस देव ने जो भी प्रश्न पूछे, उन सबका समाधान वज्रायुधकुमार ने गम्भीरता और दृढ़ता से अनेकान्तानुसार किया। भरत के भावी तीर्थंकर के श्रीमुख से ऐसी सुन्दर धर्म-चर्चा सुनकर विदेह के समस्त सभाजन अति प्रसन्न हुए। उनके अमृत भरे वचन सुनकर तथा उनके तत्त्वार्थश्रद्धान की दृढ़ता देखकर वह मिथ्यादृष्टि देव भी जैनधर्म का स्वरूप समझकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुआ। _____ पश्चात् तुरन्त ही उस विचित्रचूल देव ने अपना मूल स्वरूप प्रकट किया
और स्वर्ग में इन्द्र द्वारा की गई उनकी प्रशंसा कह सुनाई - "हे प्रभो ! मैंने आपके तत्त्वज्ञान में शंका करके आपकी परीक्षा की। आपके प्रताप से मुझे जैनधर्म की श्रद्धा हुई और मैंने सम्यग्दर्शन प्राप्त किया; इसलिए आपका मुझ पर महान उपकार है। आपका तत्त्वज्ञान-उज्ज्वल है और आप भावी तीर्थंकर हो।" - इसप्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार की स्तुति करके महान भक्ति सहित उसने स्वर्ग के वस्त्राभूषण भेंट करके वज्रायुधकुमार का बहुमान किया।
अहा! जगत में वे धर्मात्मा जीव धन्य हैं, जो कि सम्यक्त्वादि निर्मल रत्नों से विभूषित हैं, इन्द्र भी जिनकी प्रशंसा करते हों और देव आकर जिनकी परीक्षा करते हों तथापि तत्त्वश्रद्धा में जो किंचित् भी चलायमान नहीं होते – ऐसे धर्मात्माओं के सम्यग्दर्शनादि गुण देखकर मुमुक्षु का हृदय उनके प्रति प्रमोद से उल्लसित होता है। भावी तीर्थंकर शान्तिनाथ ऐसे श्री वज्रायुधकुमार का निर्मल तत्त्वज्ञान जिज्ञासु जीवों को अनुकरणीय है।