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- जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/53 जीवन में उतार ले, तेरा कल्याण हो जायेगा। मंत्र है - ‘मा तुष मारुष' (राग मत कर, द्वेष मत कर)
शिवभूति मुनि इसी मंत्र को रटते हुए स्वभाव को समझकर राग-द्वेष को दूर करने का प्रयत्न करने लगे। किंतु ज्ञान का उघाड़ कम होने से वह मंत्र भी भूल गये। उनके गुरु भी विहार कर चुके थे। शिवभूति अपने मंत्र को स्मृति में लाने का बहुत प्रयत्न करते, किन्तु उन्हें अपने मंत्र का स्मरण नहीं आ रहा था। __एक दिन शिवभूति मुनिराज कहीं जा रहे थे। तब एक नगर में कोई महिला उड़द की दाल धो रही थी। तब उन्होंने पूछा - बहिन तुम क्या कर रही हो? तुष (छिलका) और माष (दाल) भिन्न-भिन्न कर रही हूँ। तुष-माष का शब्द सुनते ही उन्हें उस मंत्र के भाव का स्मरण हो उठा - ओहो ! यह शरीरादि तुष के समान है और आत्मा माष (दाल) के समान है। ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं। - इसप्रकार द्रव्यश्रुत (शास्त्र) का ज्ञान बिल्कुल न होने पर भी आत्मस्वरूप का अनुभव कर स्वभाव में लीन हो गये और कर्मों का नाश कर शिव की विभूति (सिद्ध परमात्मा) बन गये। भावों की शुद्धि ही धर्म का मार्ग है। मोक्ष मार्ग में मात्र शास्त्रज्ञान कार्यकारी नहीं, बल्कि भावज्ञान कार्यकारी है।
अब तकबासाखाया (8) अब तो ताजाखाओ!
हम जी नहीं रहे हैं मात्र जीने की औपचारिकता पूर्ण कर रहे हैं। साँसों का लेना ही क्या जीना है ? ऐसे तो मरे चमड़े की धौकनी भी साँसें लिया करती है। हमारी सासों में लिप्सा, अभीप्सा और चाह की भी इतनी ही गरमाहट है, जितनी अग्नि से निकलती धौकनी की हवा और ईंधन गैसों में होती है। हमारी उच्छवासों में भी कारखानों की चिमनियों के काले धुंआ का रूप दिख रहा है; क्योंकि ये सासें अन्तस को छूती हुई नहीं निकल रहीं, उन आत्म-प्रदेशों से होती हुई नहीं आ रहीं, जिनमें धर्मप्राण भरा हो। वह जीवन ही क्या, जिसमें धर्म का जन्म ही न हुआ हो।