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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/56
तब वह दूसरे मित्र के यहाँ गया और उससे भी वही प्रार्थना की। दूसरा मित्र बोला – मैं यह मानता हूँ कि तुम संकट में हो, किन्तु मैं तुम्हारे साथ केवल न्यायालय की सीमा तक जाऊँगा पर उसके भीतर जाना मेरे लिए सम्भव नहीं होगा । क्षमा करो। इसप्रकार इस मित्र से भी कोई लाभ नहीं हुआ ।
अन्त में वह उस तीसरे मित्र के पास भी गया, जिसकी ओर उसने आज तक कभी ध्यान नहीं दिया था। उस मित्र ने उसके साथ न्यायालय में चलना स्वीकार किया। इतना ही नहीं, अपितु उसने न्यायाधीश के सामने उसकी ओर से अत्यन्त प्रभावपूर्ण रूप से पैरवी की और उसे दोषमुक्त करवाया । तब उसे उस मित्र के प्रति उपेक्षा करने पर पश्चात्ताप हुआ ।
उस आदमी के ये तीन मित्र थे - सम्पत्ति (पहला मित्र), सम्बन्धी (दूसरा मित्र) एवं सत्धर्म (तीसरा मित्र ) । मनुष्य जब मरणासन्न हो जाता है, तब सम्पत्ति एक कदम भी उसके साथ नहीं जा सकती । उसके सम्बन्धी लोग श्मशान तक उसका साथ देते हैं। उससे आगे वे उसके साथ नहीं जा सकते। परन्तु उसके द्वारा किया हुआ सद्धर्म अन्त तक उसका साथ देता है और न्यायासन के सामने उसकी पैरवी करके उसे दोषमुक्त कराता है, किन्तु मनुष्य जिसप्रकार सम्पत्ति तथा सम्बन्धियों की ओर ध्यान देता है, उसप्रकार सद्धर्म की ओर ध्यान नहीं देता । अत: हमें इस बात पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए और सच्चे मित्रस्वरूप सत्यधर्म करने में अपने मनुष्यभव का अमूल्य समय लगाना चाहिए।
कभी विचार किया
मोह किससे करना ?
एक गरीब आदमी खेती-किसानी करके अपना पेट भरता था । भाग्य से वह कुछ दिनों में धनी बन गया। परिवार भी बहुत बड़ा हो गया था । सब बच्चे ' अपनी-अपनी दुकानों पर और खेती पर काम करने लग गये थे। सब प्रकार की अनुकूलता थी।
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एक दिन एक मुनिराज ने उस वृद्ध किसान से कहा - 'भाई ! घर में सब अनुकूलता है अब तो साधना के पथ पर चलकर आत्मकल्याण कर लो।'