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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/35
विवाहादि नहीं हो सकते, ज्ञान- चारित्रादि का अनुष्ठान या तपादि भी निष्फल हो जायेंगे; क्योंकि जीव क्षणिक होगा तो उन सबका फल कौन भोगेगा ? तथा गुरुद्वारा शिष्य को ज्ञानप्राप्ति, पूर्वजन्म के संस्कार भी नहीं रहेंगे और प्रत्यभिज्ञान, जातिस्मरण आदि का भी लोप हो जायेगा। इसलिए जीव को सर्वथा क्षणिकपना नहीं है और यदि जीव को सर्वथा नित्य माना जाये तो बंध मोक्ष नहीं बन सकेंगे. अज्ञान दूर करके ज्ञान होना सिद्ध नहीं होगा। क्रोधादि की हानि या ज्ञानादि की वृद्धि नहीं हो सकेगी, पुनर्जन्म भी नहीं हो सकेगा; गति का परिवर्तन भी किस प्रकार होगा ? इसलिए जीव सर्वथा नित्य भी नहीं है ।
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एक ही जीव एक साथ नित्य तथा अनित्य ऐसे अनेक स्वरूप है, आत्मा द्रव्य से नित्य है, पर्याय से पलटता है; इसे ही अनेकान्त कहते हैं। इसीप्रकार जीवादि तत्त्वों में जो अपने गुण पर्याय हैं उनसे वह सर्वथा अभिन्न नहीं है; इसलिए बुद्धिमानों को परीक्षापूर्वक अनेकान्त स्वरूप जैनधर्म को स्वीकार करना चाहिये; क्योंकि वही सत्य है। एकान्त नित्यपना या एकान्त क्षणिकपना वह सत्य नहीं है।”
इसप्रकार वज्रायुधकुमार ने वज्रसमान वचनों द्वारा एकान्तवाद के तर्कों को खण्ड-खण्ड कर दिया। विद्वान पण्डित के वेश में आया हुआ वह देव भी वज्रायुध की विद्वता से मुग्ध हो गया । मन में प्रसन्न होकर अभी विशेष परीक्षा के लिये उसने पूछा कि - हे कुमार ! आपके वचन बुद्धिमत्तापूर्ण तथा विद्वानों को आनन्द देनेवाले हैं । अब यह समझायें कि - "क्या जीव कर्मादि का कर्ता है ? या सर्वथा अकर्ता है ?"
उत्तर में वज्रायुध ने कहा - जीव को घट-पट - शरीर-कर्म आदि परद्रव्य का कर्ता उपचार से कहा जाता है, वास्तव में जीव उनका कर्ता नहीं है। अशुद्धनय से जीव अपने क्रोध-रागादि भावों का कर्ता है; परन्तु वह कर्तापना छोड़ने योग्य है। शुद्धनय से जीव उन क्रोधादि का कर्ता भी नहीं है वह अपने सम्यक्त्वादि शुद्ध चेतन भावों का ही वास्तव में कर्ता है, वह उसका स्वभाव है - इसप्रकार जीव के कर्तापना तथा अकर्तापना समझना ।