Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 26
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/24 दोनों के साथ युद्ध करने चला गया। जब वह उन्हें किसीप्रकार जीत नहीं सका, तब उसने अनन्तवीर्य को मारने के लिये उस पर अपना दैवी चक्र फैंका; परन्तु अनन्तवीर्य के पुण्यातिशय के कारण वह चक्र उसके निकट आते ही शान्त हो गया और उलटा उसका आज्ञाकारी बन गया। अनन्तवीर्य ने क्रोधपूर्वक उस चक्र द्वारा दमितारी का शिरच्छेद कर दिया। अरेरे! उसी के चक्र ने उसी का वध कर दिया। ____ मरकर दमितारी नरक में गया। दमितारी प्रतिवासुदेव के पिता कीर्तिधर मुनि हुए थे और केवलज्ञान प्रकट करके अरिहन्त रूप में विचर रहे थे। अरे ! पिता तो केवली हुए और पुत्र नरक में गया। पुत्री कनकश्री अपने दादा कीर्तिधर भगवान के समवसरण में अपने पूर्वभव जानकर, संसार से विरक्त होकर आर्यिका हुई और समाधिमरण करके स्वर्ग में देवी हुई। ___ अत: हे भव्यजीवो ! तुम मोक्ष के हेतु जैनधर्म की उपासना करो। अहा ! जैनधर्म की उपासना तो मोक्षफल प्राप्त कराती है; वहाँ बीच में स्वर्गादि की गिनती ही क्या ? ___ अपराजित और अनन्तवीर्य दोनों भाई (अर्थात् शान्तिनाथ तीर्थंकर तथा चक्रायुध गणधर के जीव) विदेहक्षेत्र में बलदेव-वासुदेव रूप में प्रसिद्ध हुए। हजारों राजा तथा देव उनकी सेवा करते थे, तीन खण्ड की उत्तम विभूति उन्हें प्राप्त हुई थी, अनेक दैवी विद्याएँ भी उनको सिद्धं थीं। यह सब जिनधर्म की सेवा-भक्ति का फल था। विदेहक्षेत्र की प्रभाकरी नगरी में बलदेव-अपराजित और वासुदेवअनन्तवीर्य दोनों भाई जब सुखपूर्वक तीन खण्ड का राज्य करते थे। तब एकबार बलदेव की पुत्री कुमारी सुमति के विवाह की तैयारियां चल रही थीं। अतिभव्य विवाह-मण्डप के बीच सुमति कुमारी सुन्दर शृंगार सजकर आयी थी कि इतने में आकाश से एक देवी उतरी और सुमति से कहने लगी - "हे सखी ! सुन, मैं तेरे हित की बात कहती हूँ। मैं स्वर्ग की देवी हूँ, तू भी पूर्वभव में देवी थी और हम दोनों सहेलियाँ थीं। एकबार हम दोनों

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