Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 67
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/65 था। सेठजी ने देखा कि कुम्हार तो मिट्टी खोदते-खोदते मोहरें गिन रहा है। सेठजी को देखते ही कुम्हार को डर लगा कि अब ये मोहरें मुझे न मिल सकेंगी। सेठजी जाकर राजा से कह देंगे और सारी मोहरें छीन ली जाएंगी। ऐसा विचार कर उसने सेठजी से कहा- 'आधी मोहरे आप ले लीजिये। खोदते-खोदते मिली हैं। इनमें आपका भी तो हक है।' मोहरें लेकर सेठजी प्रसन्न हुए और घर आकर सोचने लगे कि मुनिराज ने सच कहा था। एक कुम्हार के दर्शन करने की प्रतिज्ञा | के फल में मुझे आज इतनी : मोहरें मिल गई। यदि मैं | भगवान के दर्शन करने की प्रतिज्ञा कर लेता तो इससे कई गुना लाभ होता। ऐसा विचार करते-करते सेठजी का हृदय भगवान के दर्शनों के लिए उतावला हो उठा। इसके बाद प्रतिदिन नियम से सेठजी जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करने लगे। फल यह हुआ कि सेठजी अब तो एक बड़े ही धर्मात्मा ज्ञानी बन गये, वे प्रतिदिन षट् आवश्यक का विधिवत् पालन करने लगे। यहाँ यह विचार करने योग्य बात है कि उन सेठजी ने एक छोटी सी प्रतिज्ञा लेकर उसका पूरी तरह निर्वाह किया और उसके निर्वाह करने में मुनिराज की बात मानने का परिणाम मुख्य था, उनके चित्त में मुनिराज के प्रति श्रद्धा थी कि वे निस्वार्थी वीतरागी हैं, उनका मुझे इस प्रतिज्ञा के देने में कोई स्वार्थ तो है नहीं, मात्र मुझे सत्मार्ग पर लगाने का भाव है। इसप्रकार उसके चित्त में मुनिराज एवं उनके द्वारा दी प्रतिज्ञा के प्रति बहुमान था; क्योंकि यदि उसके चित्त में मुनिराज द्वारा दी हुई प्रतिज्ञा के प्रति बहुमान नहीं होता तो वह उस दिन कुम्हार को देखने जंगल तक नहीं जाता। तात्पर्य यह है कि उसके भाव मुनिराज द्वारा दी हुई प्रतिज्ञा का निर्वाह करने में पूरी तरह समर्पित थे, मात्र

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