Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 75
________________ D BUTAM जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/73 उदयन की आज्ञा पाते ही प्रद्योत के बन्धन खोल दिए गए। उसका राज्य वापस मिल जाने की घोषणा कर दी गई। अपार जनसमुदाय के बीच लोगों ने देखा कि दो सम्राट गले मिल रहे हैं। बहुत काल से बिछुड़े हुए भाईयों की तरह। उनकी आँखें डबडबा आईं, वे क्षमावाणी जो मना रहे थे। सजा उसी कोदो (21) जो दोषी/अपराधी हो षोडश वर्षीय सर्वांग सुन्दरी युवती को देखकर एक समझदार पुरुष उसपर मोहित हो गया। थोड़ी ही देर के पश्चात् उसे अपनी इस गलती पर पश्चाताप हुआ। वह सोचने लगा – मैं कितना मूर्ख हूँ, जो एक परस्त्री पर ही मोहित हो गया, जबकि दुनियाँ की सभी महिलाएँ मेरी माँ-बहिन-बेटी के बराबर हैं। यह मुझसे अक्षम्य अपराध बन गया है। अत: जितना यह भयंकर अपराध है, इसका प्रायश्चित्त भी उतना ही कठोर होना चाहिए। उसने एक सूआ उठाकर अपनी दोनों आँखें फोड़ ली। उसने सोचा - “न रहेगा बाँस और न बजेगी बांसुरी।" थोड़ी देर पश्चात् उनके एक विद्वान मित्र आये और उन्होंने अपने मित्र की यह दयनीय दुर्दशा देखकर पूछा - मित्र यह दुर्घटना कैसे घटित हुई ? मुझे इसका बड़ा दुःख है। सूरदासजी ने निश्चल होकर घटना का सब विवरण सुना दिया।

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