Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 76
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/74 सूरदासजी के मित्र कहने लगे - बन्धु, यह तो आपने उससे भी बड़ा अपराध कर डाला है। दोष मन का था और सजा आँखों को दे डाली। आपने बड़ा भारी अक्षम्य अपराध किया है। आपको सजा देनी थी तो मन को देते, तन को न मारते । आँखों का तो देखने का काम है, वे तो देखेंगी ही, किन्तु यदि मन में विकार न आवे तो देखने में क्या दोष है ? सर्वज्ञ तो सब कुछ देखते-जानते हैं। तो क्या वे दोषी हैं, अपराधी हैं ? जानना-देखना तो आत्मा का स्वभाव है। देखने-जानने से कभी कर्मबंध नहीं होता, कर्मबंध तोरागद्वेष-मोह से होता है। वस्तु को देखकर या जानकर जब उन पदार्थों में इष्टअनिष्ट बुद्धि होती है, तभी पदार्थों के प्रति राग-द्वेष होता है। ___ यदि आँख न होने से विकार उत्पन्न न होता तो जन्मांध व्यक्तियों और जिनके आँख नहीं है ऐसे एकेन्द्रियादि जीव के विकार उत्पन्न नहीं होना चाहिए। फिर वे साधु कहलायेंगे, किन्तु उनके भी विकार उत्पन्न होता है। विकार की उत्पत्ति मन से होती है। इन्द्रियों के माध्यम से वस्तु का ज्ञान ही होता है। विकार की ओर यह मन ही प्रेरित करता है। आँखें फोड़ लेने के पश्चात् भी विकार उत्पन्न हो सकता है। आत्मबल का ज्ञान होने पर ही मन वश में हो सकता है। अत: मन को वश में करने के लिए आत्मशक्ति को बढ़ाना चाहिए, आत्मबल बढ़ने पर ही मन वश में हो सकता है। विकार को रोकने का एक मात्र यही उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। वह धर्मशाला नहीं (22) तो और क्या है ? महाराज विक्रमादित्य के पास अटूट वैभव था। उनके राजभवन से तो इन्द्रासन भी ईर्षा करता था। उसकी भव्यता को देखकर प्रत्येक मनुष्य मुग्ध हो ही जाता था। महाराज को भी अपने वैभव का बड़ा गौरव था। ___एक बार एक विवेकी निरीह विद्वान उस राजभवन में आकर ठहर गया। राज सेवकों ने विद्वान को बहुत कहा- पण्डितजी ! यह कोई यात्रियों के ठहरने की धर्मशाला नहीं है, जहाँ आकर आपने डेरा डाल दिया है। यह तो राजभवन

Loading...

Page Navigation
1 ... 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84