Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 15
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 77
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-15/75 है । इतने में कहीं से महाराज विक्रमादित्य भी वहीं आ पहुँचे । सब हाल जानकर उन्होंने भी उस विद्वान को समझाया, किन्तु जब वह नहीं माना तो राजा ने क्रोध से लाल होते हुए कहा - निकाल दो इसको यहाँ से । विद्वान बोला 'भाई ! क्यों अप्रसन्न होते हो ? यह तो धर्मशाला है। तुम भी इसमें ठहरो, मैं भी ठहरता हूँ !' - राजा - 'यह मेरा राजभवन है, धर्मशाला नहीं; समझे ! धर्मशाला तो यहाँ से कुछ दूर है। ' विद्वान - आप कितने हजार वर्षों से इसमें रहते हैं ?' राजा – ‘क्या पागलपन की बात करते हो ? मुझे तो अभी जन्म लिए पचास वर्ष भी नहीं हुए।' विद्वान – 'आपसे पहले इसमें कौन रहता था ?' - राजा - 'मेरे पूज्य 'पिताजी !' विद्वान - 'तो अब वे कहाँ चले गये और कब लौटेंगे ?' राजा - 'उनका तो स्वर्गवास हो गया, वे अब कभी नहीं लौटेंगे।' विद्वान – 'तो फिर आप इसमें कब तक रहेंगे ?' राजा - 'जबतक जीवन शेष है। अंत में तो सभी को जाना पड़ता है।' - - यह सुनकर विद्वान हँस कर बोला- 'तो भले आदमी ! जहाँ मनुष्य आकर कुछ समय ठहर कर चला जाए, वह धर्मशाला नहीं तो और क्या है ?' स्व का जानो 23 उसमें सब है । महाराज सहस्रबाहु का राजकुमार चन्द्रकेतु गुरुकुल में पढ़कर अनेक विद्याओं में पूर्ण निष्णात हो गया। जब वह अध्ययन करके लौटा तो उसे अपनी विद्या का बड़ा अहंकार हो गया । . राजा ने यह देखकर राजकुमार से पूछा- बेटा ! तुम्हें अपनी विद्या का बड़ा अहंकार है, किन्तु तुम्हें उस वस्तु का ज्ञान है, जिसके जान लेने पर सम्पूर्ण विश्व का यथार्थ ज्ञान हो जाता है ?

Loading...

Page Navigation
1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84